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वि जा॑नी॒ह्यार्या॒न्ये च॒ दस्य॑वो ब॒र्हिष्म॑ते रन्धया॒ शास॑दव्र॒तान्। शाकी॑ भव॒ यज॑मानस्य चोदि॒ता विश्वेत्ता ते॑ सध॒मादे॑षु चाकन ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi jānīhy āryān ye ca dasyavo barhiṣmate randhayā śāsad avratān | śākī bhava yajamānasya coditā viśvet tā te sadhamādeṣu cākana ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि। जा॒नी॒हि॒। आर्या॑न्। ये। च॒। दस्य॑वः। ब॒र्हिष्म॑ते। र॒न्ध॒य॒। शास॑त्। अ॒व्र॒तान्। शाकी॑। भ॒व॒। यज॑मानस्य। चो॒दि॒ता। विश्वा॑। इत्। ता। ते॒। स॒ध॒ऽमादे॑षु। चा॒क॒न॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:51» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह सभाध्यक्ष क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! तू (बर्हिष्मते) उत्तम सुखादि गुणों के उत्पन्न करनेवाले व्यवहार की सिद्धि के लिये (आर्य्यान्) सर्वोपकारक धार्मिक विद्वान् मनुष्यों को (विजानीहि) जान और (ये) जो (दस्यवः) परपीड़ा करनेवाले अधर्मी दुष्ट मनुष्य हैं, उनको जान कर (बर्हिष्मते) धर्म की सिद्धि के लिये (रन्धय) मार और उन (अव्रतान्) सत्यभाषणादि धर्मरहित मनुष्यों को (शासत्) शिक्षा करते हुए (यजमानस्य) यज्ञ के कर्ता का (चोदिता) प्रेरणाकर्त्ता और (शाकी) उत्तम शक्तियुक्त सामर्थ्य को (भव) सिद्ध कर, जिससे (ते) तेरे उपदेश वा सङ्ग से (सधमादेषु) सुखों के साथ वर्त्तमान स्थानों में (ता) उन (विश्वा) सब कर्मों को सिद्ध करने की (इत्) ही मैं (चाकन) इच्छा करता हूँ ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को दस्यु अर्थात् दुष्ट स्वभाव को छोड़ कर आर्य्य अर्थात् श्रेष्ठ स्वभावों के आश्रय से वर्त्तना चाहिये। वे ही आर्य हैं कि जो उत्तम विद्यादि के प्रचार से सबके उत्तम भोग की सिद्धि और अधर्मी दुष्टों के निवारण के लिये निरन्तर यत्न करते हैं। निश्चय करके कोई भी मनुष्य आर्य्यों के संग, उनसे अध्ययन वा उपदेशों के विना यथावत् विद्वान्, धर्मात्मा, आर्यस्वभाव युक्त होने को समर्थ नहीं हो सकता। इससे निश्चय करके आर्य के गुण और कर्मों को सेवन कर निरन्तर सुखी रहना चाहिये ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्य ! त्वं बर्हिष्मत आर्य्यान् विजानीहि ये दस्यवः सन्ति ताँश्च विदित्वा रन्धयाऽव्रतान् शासत् यजमानस्य चोदिता सन् शाकी भव यतस्ते तवोपदेशेन सङ्गेन वा सधमादेषु ता तानि विश्वा विश्वान्येतानि सर्वाणि कर्माणीदेवाहं चाकन ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) विशेषार्थे (जानीहि) विद्धि (आर्य्यान्) धार्मिकानाप्तान् विदुषः सर्वोपकारकान् मनुष्यान् (ये) वक्ष्यमाणाः (च) समुच्चये (दस्यवः) परपीडका मूर्खा धर्मरहिता दुष्टा मनुष्याः (बर्हिष्मते) बर्हिषः प्रशस्ता ज्ञानादयो गुणा विद्यन्ते यस्मिन् व्यवहारे तन्निष्पत्तये (रन्धय) हिंसय (शासत्) शासनं कुर्वन्। (अव्रतान्) सत्यभाषणादिरहितान् (शाकी) प्रशस्तः शाकः शक्तिर्विद्यते यस्य सः (भव) निर्वर्त्तस्व (यजमानस्य) यज्ञनिष्पादकस्य (चोदिता) प्रेरकः (विश्वा) सर्वाणि (इत्) एव (ता) तानि (ते) तव (सधमादेषु) सुखेन सह वर्त्तमानेषु स्थानेषु (चाकन) कामये। अत्र कनधातोर्वर्त्तमाने लिट् तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य (अष्टा०६.१.७) इत्यभ्यासदीर्घत्वं च ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्दस्युस्वभावं विहायाऽऽर्य्यस्वभावयोगेन नित्यं भवितव्यम्। त आर्य्या भवितुमर्हन्ति ये सद्विद्यादिप्रचारेण सर्वेषामुत्तमभोगसिद्धयेऽधर्मदुष्टनिवारणाय च सततं प्रयतन्ते न खलु कश्चिदार्यसङ्गाध्ययनोपदेशैर्विना यथावद्विद्वान् धर्मात्माऽऽर्य्यस्वभावो भवितुं शक्नोति, तस्मात् किल सर्वैरुत्तमानि गुणकर्माणि सेवित्वा दस्युकर्म्माणि हित्वा सुखयितव्यम् ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी दस्यू अर्थात दुष्ट स्वभाव सोडून आर्य अर्थात श्रेष्ठ स्वभावयुक्त बनून वागावे. आर्यच (श्रेष्ठ लोक) उत्तम विद्या इत्यादींच्या प्रचाराने सर्वांच्या उत्तम भोगाची सिद्धी व अधर्मी दुष्टांचे निवारण करण्यासाठी निरंतर प्रयत्न करतात. कोणताही माणूस आर्यांच्या संगतीने अध्ययन किंवा उपदेशाशिवाय यथायोग्य विद्वान धर्मात्मा आर्य स्वभावयुक्त होण्यास समर्थ बनू शकत नाही. यामुळे आर्याचे गुण व कर्म यांचे सेवन करून निरंतर सुखी झाले पाहिजे. ॥ ८ ॥