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त्वे विश्वा॒ तवि॑षी स॒ध्र्य॑ग्घि॒ता तव॒ राधः॑ सोमपी॒थाय॑ हर्षते। तव॒ वज्र॑श्चिकिते बा॒ह्वोर्हि॒तो वृ॒श्चा शत्रो॒रव॒ विश्वा॑नि॒ वृष्ण्या॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tve viśvā taviṣī sadhryag ghitā tava rādhaḥ somapīthāya harṣate | tava vajraś cikite bāhvor hito vṛścā śatror ava viśvāni vṛṣṇyā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वे इति॑। विश्वा॑। तवि॑षी। स॒ध्र्य॑क्। हि॒ता। तव॑। राधः॑। सो॒म॒ऽपी॒थाय॑। ह॒र्ष॒ते॒। तव॑। वज्रः॑। चि॒कि॒ते॒। बा॒ह्वोः। हि॒तः। वृ॒श्च। शत्रोः॑। अव॑। विश्वा॑नि। वृष्ण्या॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:51» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह सभा आदि का अध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् मनुष्य ! (त्वे) आप में जो (विश्वा) सब (तविषी) बल (हिता) स्थापित किया हुआ (सध्र्यक्) साथ सेवन करनेवाला (राधः) धन (सोमपीथाय) सुख करनेवाले पदार्थों के भोग के लिये (हर्षते) हर्षयुक्त करता है, जो (तव) आपके (बाह्वोः) भुजाओं में (हितः) धारण किया (वज्रः) शस्त्रसमूह है, जिससे आप (चिकिते) सुखों को जानते हो, उससे हम लोगों के (विश्वानि) सब (वृष्ण्या) वीरों के लिये हित करनेवाले बल की (अव) रक्षा और (शत्रोः) शत्रु के बल का नाश कीजिये ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - जो श्रेष्ठों में बल उत्पन्न हो तो उससे सब मनुष्यों को सुख होवे, जो दुष्टों में बल होवे तो उससे सब मनुष्यों को दुःख होवे, इससे श्रेष्ठों के सुख की वृद्धि और दुष्टों के बल की हानि निरन्तर करनी चाहिये ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सभाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे विद्वँस्त्वे त्वयि या विश्वा तविषी हिता सध्र्यग्राधः सोमपीथाय हर्षत यस्तव बाह्वोर्हितो वज्रो येन भवान् चिकिते सुखानि ज्ञापयति तेनाऽस्माकं विश्वानि वृष्ण्या अव शत्रोर्बलं वृश्च ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वे) त्वयि (विश्वा) अखिला (तविषी) बलयुक्ता सेना (सध्र्यक्) सह सेवमानम् (हिता) हितकारिणी (तव) (राधः) धनम् (सोमपीथाय) सुखकारकपदार्थभोगाय (हर्षते) हर्षति। अत्र व्यत्ययेन आत्मनेपदम्। (तव) (वज्रः) शस्त्रसमूहः (चिकिते) चिकित्सति (बाह्वोः) भुजयोः (हितः) धृतः (वृश्च) छिन्धि (शत्रोः) (अव) रक्ष (विश्वानि) सर्वाणि (वृष्ण्या) वृषभ्यो वीरेभ्यो हितानि बलानि ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - यदि च श्रेष्ठेषु बलं जायते तर्हि सर्वेषां सुखं वर्द्धेत, यदि दुष्टेषु बलमुत्पद्येत तर्हि सर्वेषां दुःखं वर्द्धेत, तस्माच्छ्रेष्ठानां सुखबलवृद्धिर्दुष्टानां बलहानिर्नित्यं कार्येति ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा श्रेष्ठात बल उत्पन्न होते तेव्हा सर्व माणसांना सुख मिळते. दुष्टांमध्ये बल उत्पन्न झाल्यास सर्व माणसांना दुःख मिळते. त्यामुळे श्रेष्ठांच्या सुखाची वृद्धी व दुष्टांची निरंतर हानी केली पाहिजे. ॥ ७ ॥