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स घा॑ नो॒ योग॒ अ भु॑व॒त्स रा॒ये स पुरं॑ध्याम्। गम॒द्वाजे॑भि॒रा स नः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa ghā no yoga ā bhuvat sa rāye sa puraṁdhyām | gamad vājebhir ā sa naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। घ॒। नः॒। योगे॑। आ। भु॒व॒त्। सः। रा॒ये। सः। पुर॑म्ऽध्याम्। गम॑त्। वाजे॑भिः। आ। सः। नः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:5» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:9» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

वे दोनों तुम हम और सब प्राणिलोगों के लिये क्या करते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) पूर्वोक्त इन्द्र परमेश्वर और स्पर्शवान् वायु (नः) हम लोगों के (योगे) सब सुखों के सिद्ध करानेवाले वा पदार्थों को प्राप्त करानेवाले योग तथा (सः) वे ही (राये) उत्तम धन के लाभ के लिये और (सः) वे (पुरन्ध्याम्) अनेक शास्त्रों की विद्याओं से युक्त बुद्धि में (आ भुवत्) प्रकाशित हों। इसी प्रकार (सः) वे (वाजेभिः) उत्तम अन्न और विमान आदि सवारियों के सह वर्त्तमान (नः) हम लोगों को (आगमत्) उत्तम सुख होने का ज्ञान देवे तथा यह वायु भी इस विद्या की सिद्धि में हेतु होता है॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में भी श्लेषालङ्कार है। ईश्वर पुरुषार्थी मनुष्य का सहायकारी होता है, आलसी का नहीं, तथा स्पर्शवान् वायु भी पुरुषार्थ ही से कार्य्यसिद्धि का निमित्त होता है, क्योंकि किसी प्राणी को पुरुषार्थ के विना धन वा बुद्धि का और इन के विना उत्तम सुख का लाभ कभी नहीं हो सकता। इसलिये सब मनुष्यों को उद्योगी अर्थात् पुरुषार्थी आशावाले अवश्य होना चाहिये॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तावस्मदर्थं किं कुरुत इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

स ह्येवेन्द्रः परमेश्वरो वायुश्च नोऽस्माकं योगे सहायकारी व्यवहारविद्योपयोगाय चाभुवत् समन्ताद् भूयात् भवति वा, तथा स एव राये स पुरन्ध्यां च प्रकाशको भूयाद्भवति वा, एवं स एव वाजेभिः सह नोऽस्मानागमदाज्ञाप्यात् समन्तात् गमयति वा॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) इन्द्र ईश्वरो वायुर्वा (घ) एवार्थे निपातः। ऋचि तुनुघ०। (अष्टा०६.३.१३३) अनेन दीर्घादेशः। (नः) अस्माकम् (योगे) सर्वसुखसाधनप्राप्तिसाधके (आ भुवत्) समन्ताद् भूयात्। भूधातोराशिषि लिङि प्रथमैकवचने लिङ्याशिष्यङ् (अष्टा०३.१.८६) इत्यङि सति किदाशिषीत्यागमानित्यत्वे प्रयोगः। (सः) उक्तोऽर्थः। (राये) परमोत्तमधनलाभाय। राय इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (सः) पूर्वोक्तोऽर्थः। (पुरन्ध्याम्) बहुशास्त्रविद्यायुक्तायां बुद्ध्याम्। पुरन्धिरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.३) (गमत्) आज्ञाप्यात् गमयति वा। अत्र पक्षे वर्त्तमानेऽर्थे लिङर्थे च लुङ्। बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि। (अष्टा०६.४.७५) इत्यडभावः। (वाजेभिः) उत्तमैरन्नैर्विमानादियानैः सह वा। बहुलं छन्दसि। (अष्टा०७.१.१०) अनेनैसादेशाभावः। (आ) सर्वतः (सः) अतीतार्थे (नः) अस्मान्॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। ईश्वरः पुरुषार्थिनो मनुष्यस्य सहायकारी भवति नेतरस्य, तथा वायुरपि पुरुषार्थेनैव कार्य्यसिद्ध्युपयोगी भवति। नैव कस्यचिद्विना पुरुषार्थेन धनवृद्धिलाभो भवति। नैवैताभ्यां विना कदाचिदुत्तमं सुखं च भवतीत्यतः सर्वैर्मनुष्यैरुद्योगिभिराशीर्मद्भिर्भवितव्यम्॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - यातही श्लेषालंकार आहे. ईश्वर पुरुषार्थी माणसाचा साह्यकर्ता असतो, आळशाचा नाही. स्पर्श करणारा वायूही पुरुषार्थानेच कार्यसिद्धीचे निमित्त होत असतो. कारण कोणत्याही प्राण्याला पुरुषार्थाशिवाय धन किंवा बुद्धी यांचा व त्यांच्याशिवाय उत्तम सुखाचा लाभ कधी होऊ शकत नाही. त्यासाठी सर्व माणसांनी उद्योगी अर्थात पुरुषार्थी बनण्याची इच्छा बाळगावी. ॥ ३ ॥