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पु॒रू॒तमं॑ पुरू॒णामीशा॑नं॒ वार्या॑णाम्। इन्द्रं॒ सोमे॒ सचा॑ सु॒ते॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

purūtamam purūṇām īśānaṁ vāryāṇām | indraṁ some sacā sute ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु॒रु॒ऽतम॑म्। पु॒रू॒णाम्। ईशा॑नम्। वार्या॑णम्। इन्द्र॑म्। सोमे॑। सचा॑। सु॒ते॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:5» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी अगले मन्त्र में उन्हीं दोनों के गुणों का प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (सखायः) हे मित्र विद्वान् लोगो ! (वार्य्याणाम्) अत्यन्त उत्तम (पुरूणाम्) आकाश से लेके पृथिवीपर्य्यन्त असंख्यात पदार्थों को (ईशानम्) रचने में समर्थ (पुरूतमम्) दुष्टस्वभाववाले जीवों को ग्लानि प्राप्त करानेवाले (इन्द्रम्) और श्रेष्ठ जीवों को सब ऐश्वर्य्य के देनेवाले परमेश्वर के तथा (वार्याणाम्) अत्यन्त उत्तम (पुरूणाम्) आकाश से लेके पृथिवीपर्य्यन्त बहुत से पदार्थों की विद्याओं के साधक (पुरूतमम्) दुष्ट जीवों वा कर्मों के भोग के निमित्त और (इन्द्रम्) जीवमात्र को सुखदुःख देनेवाले पदार्थों के हेतु भौतिक वायु के गुणों को (अभिप्रगायत) अच्छी प्रकार उपदेश करो। और (तु) जो कि (सुते) रस खींचने की क्रिया से प्राप्त वा (सोमे) उस विद्या से प्राप्त होने योग्य (सचा) पदार्थों के निमित्त कार्य्य हैं, उनको उक्त विद्याओं से सब के उपकार के लिये यथायोग्य युक्त करो॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। पीछे के मन्त्र से इस मन्त्र में सखायः तु अभिप्रगायत इन तीन शब्दों को अर्थ के लिये लेना चाहिये। इस मन्त्र में यथायोग्य व्यवस्था करके उनके किये हुए कर्मों का फल देने से ईश्वर तथा इन कर्मों के फल भोग कराने के कारण वा विद्या और सब क्रियाओं के साधक होने से भौतिक अर्थात् संसारी वायु का ग्रहण किया है॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

पालकों का पालक 

पदार्थान्वयभाषाः - १. पिछले मन्त्र के अनुसार एकत्र होकर प्रभु - गायन करते हुए उपासक कहते हैं कि (पुरूणाम्) [पृ पालनपूरणयोः] - पालकों में (पुरूतमम्) - सर्वाधिक उस पालक प्रभु का हम गायन करते हैं जो प्रभु 'पुरुतम' - [पुरून् बहून् शत्रून्] तमयति ग्लापयति हमारे काम - क्रोधादि शतशः शत्रुओं को क्षीण करते हैं । २. और वस्तुतः इन शत्रुओं को क्षीण करके ही तो प्रभु वरणीय धनों को हमें प्राप्त करते हैं ।  ३. हम उस (वार्याणाम्) - वरणीय धनों के (ईशानम्) - स्वामी का कीर्तन करते हैं जो प्रभु (इन्द्रम्) - परमैश्वर्यशाली हैं  , सब शत्रुओं का विदारण करनेवाले हैं ।  ४. उस प्रभु का वस्तुतः स्तवन तो (सोमे सुते) - सोम का अभिषव करने पर (सचा) - उस प्रभु से मेल होने पर ही होता है । हम शरीर में सोम का सम्पादन करें  , उस सोम को शरीर में सुरक्षित करनेवाले बनें तब यह सोम उस प्रभु से हमारा मेल करानेवाला होगा और यही प्रभु का सच्चा स्तवन होगा । 'इस सोम से उस सोम को प्राप्त करना' जीवन की यही सर्वमहान् सफलता है ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - [क] वह प्रभु पालकों में सर्वोत्तम पालक है । [ख] वरणीय वस्तुओं के ईशान हैं । [ग] उस प्रभु का सच्चा स्तवन यही है कि हम सोम के रक्षण से बुद्धि को सूक्ष्म करके प्रभु का दर्शन करें । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तावेवोपदिश्येते।

अन्वय:

हे सखायो विद्वांसो वार्य्याणां पुरूतममीशानं पुरूणामिन्द्रमभिप्रगायत। ये सुते सोमे सचाः सन्ति तान् सर्वोपकाराय यथायोग्यमभिप्रगायत॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरूतमम्) पुरून् बहून् दुष्टस्वभावान् जीवान् पापकर्मफलदानेन तमयति ग्लापयति तं परमेश्वरं तत्फलभोगहेतुं वायुं वा। पुरुरिति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) अत्र अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (पुरूणाम्) बहूनामाकाशादिपृथिव्यन्तानां पदार्थानाम् (ईशानम्) रचने समर्थं परमेश्वरं तन्मध्यस्थविद्यासाधकं वायुं वा (वार्य्याणाम्) वराणां वरणीयानामत्यन्तोत्तमानां मध्ये स्वीकर्तुमर्हम्। वार्य्यं वृणोतेरथापि वरतमं तद्वार्य्यं वृणीमहे वरिष्ठं गोपयत्ययं तद्वार्य्यं वृणीमहे वर्षिष्ठं गोपायितव्यम्। (निरु०५.१) (इन्द्रम्) सकलैश्वर्य्यप्रदं परमेश्वरमात्मनः सर्वभोगहेतुं वायुं वा (सोमे) सोतव्ये सर्वस्मिन्पदार्थे विमानादियाने वा। (सचा) ये समवेताः पदार्थाः सन्ति। सचा इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.२) (सुते) उत्पन्नेऽभिषवविद्ययाऽभिप्राप्ते॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। पूर्वस्मान्मन्त्रात् ‘सखायः; तु; अभिप्रगायत’ इति पदत्रयमनुवर्त्तनीयम्। ईश्वरस्य यथायोग्यव्यवस्थया जीवेभ्यस्तत्तत्कर्मफलदातृत्वात् भौतिकस्य वायोः कर्मफलहेतुत्वेन सकलचेष्टाविद्यासाधकत्वादस्मादुभयार्थस्य ग्रहणम्॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Friends and comrades in study and meditation, when you have distilled the essence of soma, life and spirit present at the heart of things, then sing in praise of Indra, closest at hand of things in heaven and earth, and ruler dispenser of the fruits of love and desire.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The same subject is continued in the next Mantra.

अन्वय:

(1) O learned friends glorify God Who as Dispenser of justice gives punishment to unrighteous persons, Who is the Lord of all things from earth to heaven, the Best and therefore the most acceptable, the Giver of all kinds of wealth (material as well as spiritual) to righteous people and utilize all things of the world for the benefit of all. (2) Praise the properties of the air which is the means of sustenance and without which one cannot at all live, therefore which is most acceptable among all elements, utilize it properly O learned friends and Scientists, for the construction of aero planes etc. to benefit all people.

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरूतमम्) पुरून् बहून् दुष्टस्वभावान् पापकर्मफलप्रदानेन तमयति ग्लपयति तं परमेश्वरं तत्फलभोगहेतुं वायुं वा सोमे सोतव्ये सर्वस्मिन् पदार्थे विमानादियाने वा ।
भावार्थभाषाः - There is Shleshalankar or double entendre in this Mantra and so the word Indra denotes here both God as Lord of the Universe and Dispenser of justice according to the good or bad actions of the people and air. God is to be glorified and the air which is the cause of the sustenance of all creatures and should be properly utilized for the benefit of all.
टिप्पणी: पुरु इति वहुनाम (निघ० ३०१ ) Many. तमु-ग्लानौ Generally in the present Dhatu Patha the meaning of the Verb tamu (तमु) is given as कन्क्षायाम् or desire, but even in the well-known धातुरूप कल्पद्रुम by Pandit Gurunath Vidyanidhi of Calcutta it is stated on P-435. तमु कांक्षायाम् कांक्षा आकांक्षा ग्लानिरिति बोपदेदः ॥ Rishi Dayananda has preferred the same meaning in his commentary of this Mantra. (सोमे) The word सोम is from षुप्रसवैश्वर्ययो: or षूङ-प्राणिगर्भविमोचने औणादिकः मन्प्रत्यय: अर्तिस्तु सुहुमृ धक्षिक्षु, भायावापदियक्षिनीभ्यो मन् ॥ (उणादिकोषे १.१४० ) hence the meaning सोतन्ये पदार्थों विमानादियाने वा Anything that is created or manufactured.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. मागच्या मंत्रातून या मंत्रात ‘सखायः; तु; अभिप्रगायत’ या तीन शब्दांचे अर्थ ग्रहण केले पाहिजेत. यथायोग्य व्यवस्था करून केलेल्या कर्मांचे फळ देण्याने ईश्वर व या कर्मांचा फळभोग देवविण्यामुळे व विद्या व सर्व क्रियांचा साधक असल्यामुळे भौतिक अर्थात जगातील वायू असा या मंत्रात अर्थ केलेला आहे. ॥ २ ॥