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स॒ह वा॒मेन॑ न उषो॒ व्यु॑च्छा दुहितर्दिवः । स॒ह द्यु॒म्नेन॑ बृह॒ता वि॑भावरि रा॒या दे॑वि॒ दास्व॑ती ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

saha vāmena na uṣo vy ucchā duhitar divaḥ | saha dyumnena bṛhatā vibhāvari rāyā devi dāsvatī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒ह । वा॒मेन॑ । नः॒ । उ॒षः॒ । वि । उ॒च्छ॒ । दु॒हि॒तः॒ । दि॒वः॒ । स॒ह । द्यु॒म्नेन॑ । बृ॒ह॒ता । वि॒भा॒व॒रि॒ । रा॒या । दे॒वि॒ । दास्व॑ती॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:48» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:3» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:9» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अड़तालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहिले मंत्र में उषा के समान पुत्रियों के गुण होने चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (दिवः) सूर्यप्रकाश की (दुहितः) पुत्री के समान (उषः) उषा के तुल्य वर्त्तमान (विभावरि) विविध दीप्ति युक्त (देवि) विद्या सुशिक्षाओं से प्रकाशमान कन्या (दास्वती) प्रशस्त दानयुक्त ! तू (बृहता) बड़े (वामेन) प्रशंसित प्रकाश (द्युम्नेन) न्यायप्रकाश करके सहित (राया) विद्या चक्रवर्त्ति राज्य लक्ष्मी के (सहः) सहित (नः) हम लोगों को (व्युच्छ) विविध प्रकार प्रेरणा करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - यहां वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे कोई स्वामी भृत्य को वा भृत्य स्वामी को सचेत कर व्यवहारों में प्रेरणा करता है और जैसे उषा अर्थात् प्रातःकाल की वेला प्राणियों को पुरुषार्थ युक्त कर बड़े-२ पदार्थसमूह युक्त सुख से आनन्दित कर सायंकाल में सब व्यवहारों से निवृत्त कर आरामस्थ करती है वैसे ही माता-पिता विद्या और अच्छी शिक्षा आदि व्यवहारों में अपनी कन्याओं को प्रेरणा करें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(सह) संगे (वामेन) प्रशस्येन (नः) अस्मान् (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (वि) विविधार्थे (उच्छ) विवस (दुहितः) पुत्रीव (दिवः) प्रकाशमानस्य सूर्यस्य (सह) सार्द्धम् (द्युम्नेन) प्रकाशेनेव विद्यासुशिक्षारूपेण (बृहता) महागुणविशिष्टेन (विभावरि) विविधा दीप्तयो यस्यास्तत्सम्बुद्धौ (राया) विद्याचक्रवर्त्तिराज्यश्रिया (देवि) विद्यासुशिक्षाभ्यां द्योतमाने (दास्वती) प्रशस्तानि दानानि विद्यन्तेऽस्याः सा ॥१॥

अन्वय:

अथोषर्वत्कन्यकानां गुणाः सन्तीत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे दिवो ! दुहितरुषर्वद्वर्त्तमाने विभावरि देवि कन्ये दास्वती त्वं बृहता वामेन द्युम्नेन राया सह नो व्युच्छ ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यतो यदुत्पद्यते तत्तस्याऽपत्यवद्भवति यथा कश्चित्स्वामिभृत्यः स्वामिनं प्रबोध्य सचेतनं कृत्वा व्यवहारेषु प्रयोजयति यथोषाश्च पुरुषार्थयुक्तान् प्राणिनः कृत्वा महता पदार्थसमूहेन सुखेन वा सार्द्धं योजित्वाऽऽनन्दितान्कृत्वा सायंकालस्थैषा व्यवहारेभ्यो निवर्त्यारामस्थान करोति तथा मातापितृभ्यां विद्यासुशिक्षादिव्यवहारेषु स्वकन्याः प्रेरितव्याः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात उषेच्या दृष्टान्ताने कन्या व स्त्रियांच्या लक्षणांचे प्रतिपादन केलेले आहे. या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - येथे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे एखादा मालक सेवकाला व सेवक स्वामीला सचेत करून व्यवहारात प्रेरणा देतो व जशी उषा अर्थात प्रातःकाळची वेळ प्राण्यांना पुरुषार्थ युक्त करून पुष्कळ पदार्थ समूहाचे सुख देऊन आनंदित करते व सायंकाळी सर्व व्यवहारांपासून निवृत्त करून आराम देते. तसेच मातापिता यांनी विद्या व चांगले शिक्षण इत्यादी व्यवहारात आपल्या कन्यांना प्रेरणा द्यावी. ॥ १ ॥