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अश्वि॑ना॒ मधु॑मत्तमं पा॒तं सोम॑मृतावृधा । अथा॒द्य द॑स्रा॒ वसु॒ बिभ्र॑ता॒ रथे॑ दा॒श्वांस॒मुप॑ गच्छतम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aśvinā madhumattamam pātaṁ somam ṛtāvṛdhā | athādya dasrā vasu bibhratā rathe dāśvāṁsam upa gacchatam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अश्वि॑ना । मधु॑मत्तमम् । पा॒तम् । सोम॑म् । ऋ॒त॒वृ॒धा॒ । अथ॑ । अ॒द्य । द॒स्रा॒ । वसु॑ । बिभ्र॑ता । रथे॑ । दा॒स्वांस॑म् । उप॑ । ग॒च्छ॒त॒म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:47» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:9» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) सूर्य्य वायु के समान कर्म और (दस्रा) दुःखों के दूर करनेवाले ! (वसु) सबसे उत्तम धन को (बिभ्रता) धारण करते तथा (ऋतावृधा) यथार्थ गुण संयुक्त प्राप्ति साधन से बढ़े हुए सभा और सेना के पति आप (अद्य) आज वर्त्तमान दिन में (मधुमत्तमम्) अत्यन्त मधुरादिगुणों से युक्त (सोमम्) वीर रस की (पातम्) रक्षा करो (अथ) तत्पश्चात् पूर्वोक्त (रथे) विमानादि यान में स्थित होकर (दाश्वांसम्) देने वाले मनुष्य के (उपगच्छतम्) समीप प्राप्त हुआ कीजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - यहां वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे वायु से सूर्य्य चन्द्रमा की पुष्टि और अन्धेर का नाश होता है वैसे ही सभा और सेना के पतियों से प्रजास्थ प्राणियों की संतुष्टि दुःखों का नाश और धन की वृद्धि होती है ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(अश्विना) सूर्य्यवायुसदृक्कर्मकारिणौ सभासेनेशौ (मधुमत्तमम्) अतिशयेन प्रशस्तैर्मधुरादिगुणैरुपेतम् (पातम्) रक्षतम् (सोमम्) वीररसादिकम् (ऋतावृधा) यावृतेन यथार्थगुणेन प्राप्तिसाधकेन वर्धयेते तौ (अथ) आनन्तर्य्य (अद्य) अस्मिन् वर्त्तमाने दिने (दस्रा) दुःखोपक्षेतारौ (वसु) सर्वोत्तमं धनम् (बिभ्रता) धरन्तौ (रथे) विमानादियाने (दाश्वांसम्) दातारम् (उप) सामीप्ये (गच्छतम्) प्राप्नुतम् ॥३॥

अन्वय:

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अश्विना सूर्य्यवायुवद्वर्त्तमानौ दस्रा वसु बिभ्रतर्तावृधा सभासेनाध्यक्षौ युवामद्य मधुमत्तमं सोमं पातमथोक्ते रथे स्थित्वा दाश्वांसमुपगच्छतम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथा वायुना सोमसूर्य्ययोः पुष्टिस्तमोनाशश्च भवति तथैव सभासेनेशाभ्यां प्रजानां दुःखोपक्षयो धनवृद्धिश्च जायते ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - येथे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायूने सूर्य-चंद्राची पुष्टी व अंधकाराचा नाश होतो तसेच सभा व सेनापतींकडून प्रजेची संतुष्टी, दुःखाचा नाश व धनाची वृद्धी होते. ॥ ३ ॥