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उ॒क्थेभि॑र॒र्वागव॑से पुरू॒वसू॑ अ॒र्कैश्च॒ नि ह्व॑यामहे । शश्व॒त्कण्वा॑नां॒ सद॑सि प्रि॒ये हि कं॒ सोमं॑ प॒पथु॑रश्विना ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ukthebhir arvāg avase purūvasū arkaiś ca ni hvayāmahe | śaśvat kaṇvānāṁ sadasi priye hi kaṁ somam papathur aśvinā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒क्थेभिः॑ । अ॒र्वाक् । अव॑से । पु॒रु॒वसू॒ इति॑ पु॒रु॒वसू॑ । अ॒र्कैः । च॒ । नि । ह्व॒या॒म॒हे॒ । शश्व॑त् । कण्वा॑नाम् । सद॑सि । प्रि॒ये । हि । क॒म् । सोम॑म् । प॒पथुः॑ । अ॒श्वि॒ना॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:47» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:2» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:9» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उनके प्रति प्रजाजन क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरूवसू) बहुत विद्वानों में वसनेवाले (अश्विना) वायु और सूर्य के समान वर्त्तमान धर्म्म और न्याय के प्रकाशक ! (अवसे) रक्षादि के अर्थ हम लोग (उक्थेभिः) वेदोक्त स्तोत्र वा वेदविद्या के जानने वाले विद्वानों के इष्ट वचनों के (अर्कैः) विचार से जहां (कण्वानाम्) विद्वानों की (प्रिये) पियारी (सदसि) सभा में आप लोगों को (निह्वयामहे) अतिशय श्रद्धा कर बुलाते हैं वहां तुम लोग (अर्वाक्) पीछे (शश्वत्) सनातन (कम्) सुख को प्राप्त होओ (च) और (हि) निश्चय से (सोमम्) सोमवल्ली आदि ओषधियों के रसों को (पपथुः) पिओ ॥१०॥
भावार्थभाषाः - राजप्रजा जनों को चाहिये कि विद्वानों की सभा में जाकर नित्य उपदेश सुनें जिससे सब करने और न करने योग्य विषयों का बोध हो ॥१०॥ यहां राजा और प्रजा के धर्म्म का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगती जाननी चाहिये ॥ ॥यह दूसरा २ वर्ग और सैंतालीसवां ४७ सूक्त समाप्त हुआ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(उक्थेभिः) वेदस्तोत्रैरधीतवेदाप्तोपदिष्टवचनैर्वा (अर्वाक्) पश्चात् (अवसे) रक्षणाद्याय (पुरूवसू) पुरूणां बहूनां विदुषां मध्ये कृतवासौ (अर्कैः) मंत्रैर्विचारैर्वा। अर्को मंत्रो भवति यदेनेनार्चन्ति निरु० ५।४। (च) समुच्चये (नि) नितराम् (ह्वयामहे) स्पर्धामहे (शश्वत्) अनादिरूपम् (कण्वानाम्) मेधाविनां विदुषाम् (सदसि) सभायाम् (प्रिये) प्रीतिकामनासिद्धिकर्य्यां (हि) खलु (कम्) सुखसंपादकम् (सोमम्) सोमवल्यादिरसम् (पपथुः) पिबतम् (अश्विना) वायुसूर्य्याविव वर्त्तमानौ धर्मन्यायप्रकाशकौ ॥१०॥

अन्वय:

पुनरेतौ प्रति प्रजाजनाः किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे पुरूवसूअवसे अश्विना ! वयमुक्थेभिरर्कैर्यत्र कण्वानां प्रिये सदसि यौ युवां निह्वयामहे तत्रार्वाक् तौ शश्वत्कं प्राप्नुतं हि सोमं च पपथुः ॥१०॥
भावार्थभाषाः - राजप्रजाजना विदुषां सभायां गत्वोपदेशान्नित्यं शृण्वन्तु यतः सर्वेषां कर्त्तव्याऽकर्त्तव्यबोधः स्यात् ॥१०॥ अत्र राजप्रजाधर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन साकं सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥ ॥इति द्वितीयो २ वर्गः सप्तचत्वारिंशं ४७ सूक्तं च समाप्तम्॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा व प्रजा यांनी विद्वानांच्या सभेत जाऊन नित्य उपदेश ऐकावा. ज्यामुळे कर्तव्य-अकर्तव्याचा बोध होईल. ॥ १० ॥