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महि॑केरव ऊ॒तये॑ प्रि॒यमे॑धा अहूषत । राज॑न्तमध्व॒राणा॑म॒ग्निं शु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mahikerava ūtaye priyamedhā ahūṣata | rājantam adhvarāṇām agniṁ śukreṇa śociṣā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

महि॑केरवः । ऊ॒तये॑ । प्रि॒यमे॑धाः । अ॒हू॒ष॒त॒ । राज॑न्तम् । अ॒ध्व॒राणा॑म् । अ॒ग्निम् । शु॒क्रेण॑ । शो॒चिषा॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:45» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:31» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:9» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् लोग उसको किसके लिये प्रेरणा करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे महाविद्वानो ! (महिकेरवः) जिनके बड़े-२ शिल्प विद्या के सिद्ध करनेवाले कारीगर हों ऐसे (प्रियमेधाः) सत्य विद्या वा शिक्षाओं की प्राप्त कराने वाली मेधा बुद्धि युक्त आप लोग (अध्वराणाम्) पालनीय व्यवहाररूपी कर्मों की (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (शुक्रेण) शुद्ध शीघ्रकारक (शोचिषा) तेज से (राजन्तम्) प्रकाशमान (अग्निम्) प्रसिद्ध वा बिजुली रूप आग के सदृश सभापति को (अहूषत) उपदेश वा उससे श्रवण किया करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - कोई मनुष्य धार्मिक बुद्धिमानों के सङ्ग के विना उत्तम-२ व्यवहारों की सिद्धि करने को समर्थ नहीं हो सकता इससे सब मनुष्यों को योग्य है कि इनके सङ्ग से इन विद्याओं को साक्षात्कार अवश्य करें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(महिकेरवः) महयो महान्तः केरवः कारवः शिल्पविद्यासाधका येषां ते। अत्र कृञ् धातोरुण् प्रत्ययो वर्णव्यत्ययेन अकारस्य एकारश्च। (ऊतये) रक्षणाद्याय (प्रियमेधाः) सत्यविद्याशिक्षाप्रापिका प्रिया मेधा येषां ते (अहूषत) उपदिशत। अत्र लोडर्थे लुङ्। (राजन्तम्) प्रकाशमानम् (अध्वराणाम्) अहिंसनीयव्यवहाराख्यकर्मणाम् (अग्निम्) पावकवद्विद्वांसम् (शुक्रेण) शीघ्रकरेण (शोचिषा) पवित्रेण विज्ञानेन ॥४॥

अन्वय:

पुनर्विद्वांसस्तं कस्मै प्रयुंजीरन्नित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे महाविद्वांसो महिकेरवः प्रियमेधाः ! यूयमध्वराणामूतये शुक्रेण शोचिषा सह राजन्तमग्निमहूषत ॥४॥
भावार्थभाषाः - नहि कश्चिद्धार्मिकविंद्वत्सङ्गेन विना परमोत्तमव्यवहाराणां सिद्धिं कर्त्तुं शक्नोति तस्मात्सर्वैरेतेषां संगेन सकला विद्याः साक्षात्कर्त्तव्याः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - कोणताही माणूस धार्मिक बुद्धिमानांच्या संगतीशिवाय उत्तम व्यवहार सिद्ध करण्यास समर्थ बनू शकत नाही. त्यामुळे सर्व माणसांनी त्यांच्या संगतीने विद्यांचा साक्षात्कार अवश्य करावा. ॥ ४ ॥