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मा वो॒ घ्नन्तं॒ मा शप॑न्तं॒ प्रति॑ वोचे देव॒यन्त॑म् । सु॒म्नैरिद्व॒ आ वि॑वासे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā vo ghnantam mā śapantam prati voce devayantam | sumnair id va ā vivāse ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा । वः॒ । घ्नन्त॑म् । मा । शप॑न्तम् । प्रति॑ । वो॒चे॒ । दे॒व॒यन्त॑म् । सु॒म्नैः । इत् । वः॒ । आ । वि॒वा॒से॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:41» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:23» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

सभाध्यक्ष आदि लोग प्रजाजनों के साथ क्या प्रतिज्ञा करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (वः) मित्ररूप तुम को (घ्नन्तम्) मारते हुए जन से (मा प्रतिवोचे) संभाषण भी न करूं (वः) तुम को (शपंतम्) कोसते हुए मनुष्य से प्रिय (मा०) न बोलूं किन्तु (सुम्नैः) सुखों से सहित तुम को सुख देनेहारे (इत्) ही (देवयन्तम्) दिव्यगुणों की कामना करने हारे की (आविवासे) अच्छे प्रकार सेवा सदा किया करूं ॥८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य को योग्य है कि न अपने शत्रु और न मित्र के शत्रु में प्रीति करे मित्र की रक्षा और विद्वानों की प्रियवाक्य, भोजन वस्त्र पान आदि से सेवा सदा करनी चाहिये क्योंकि मित्र रहित पुरुष सुख की वृद्धि नहीं कर सकता इससे विद्वान् लोग बहुत से धर्मात्माओं को मित्र करें ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(मा) निषेधार्थे (वः) युष्मान् (घ्नन्तम्) हिंसन्तम् (मा) (शपन्तम्) आक्रोशन्तम् (प्रति) प्रतीतार्थे (वोचे) वदेयम्। अत्र स्थानिवत्त्वात् आत्मनेपदमडभावश्च (देवयन्तम्) देवान् दिव्यगुणान् कामयमानम् (सुम्नैः) सुखैः। सुमनमिति सुखना०। निघं० ३।६। (इत्) एव (वः) युष्मान् (आ) समंतात् (विवासे) परिचरामि ॥८॥ #[अत्र ब्रुवः स्थाने वजादेशः, स्थानिवत्त्वात् चात्मनेपदम्। सं०]

अन्वय:

सभाध्यक्षादयः प्रजास्थैः सह किं किं प्रतिजानीरन्नित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - अहं वो युष्मान्मन्मित्रान् घ्नन्तं मा प्रतिवोचे वो युष्माञ्छपंतं मा प्रतिवोचे प्रियं न वदेयम्। किन्तु युष्मान्सुम्नैः सह देवयन्तमिदेवाविवासे ॥८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैःस्वमित्रशत्रौ तन्मित्रेऽपि प्रीतिः कदाचिन्नैव कार्य्या मित्ररक्षा सदैव विधेया। विदुषां मित्राणां प्रियधनभोजनवस्त्रयानादिभिर्नित्यं परिचर्य्या कार्य्या नो अमित्रः सुखमेधते तस्माद्विद्वांसो धार्मिकान् मित्रान्संपादयेयुः ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी आपल्या शत्रूवर व मित्राच्या शत्रूवर प्रेम करू नये. मित्राचे रक्षण करावे व प्रिय वचन, भोजन, वस्त्र, पान इत्यादींनी विद्वानांची सेवा करावी. कारण मित्ररहित पुरुषाच्या सुखाची वृद्धी होऊ शकत नाही. त्यासाठी विद्वान लोकांनी पुष्कळ धर्मात्म्यांबरोबर मैत्री करावी. ॥ ८ ॥