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क॒था रा॑धाम सखायः॒ स्तोमं॑ मि॒त्रस्या॑र्य॒म्णः । महि॒ प्सरो॒ वरु॑णस्य ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kathā rādhāma sakhāyaḥ stomam mitrasyāryamṇaḥ | mahi psaro varuṇasya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क॒था । रा॒धा॒म॒ । स॒खा॒यः॒ । स्तोम॑म् । मि॒त्रस्य॑ । अ॒र्य॒म्णः । महि॑ । प्सरः॑ । वरु॑णस्य॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:41» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:23» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

सबको क्या करके इस सुख को प्राप्त कराना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग (सखायः) सबके मित्र होकर (मित्रस्य) सबके सखा (अर्य्यम्णः) न्यायाधीश (वरुणस्य) और सबसे उत्तम अध्यक्ष के (महि) बड़े (स्तोमम्) गुण स्तुति के समूह को (कथा) किस प्रकार से (राधाम) सिद्ध करें और किस प्रकार हमको (प्सरः) सुखों का भोग सिद्ध होवे ॥७॥
भावार्थभाषाः - जब कोई मनुष्य किसी को पूछे कि हम लोग किस प्रकार से मित्रपन न्याय और उत्तम विद्याओं को प्राप्त होवें वह उनको ऐसा कहे कि परस्पर मित्रता विद्यादान और परोपकार ही से यह सब प्राप्त हो सकता है इसके विना कोई भी मनुष्य किसी सुख को सिद्ध करने को समर्थ नहीं हो सकता ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(कथा) केन हेतुना (राधाम) साध्नुयाम। अत्र विकरणव्यत्ययः (सखायः) मित्राः सन्तः (स्तोमम्) गुणस्तुतिसमूहम् (मित्रस्य) सर्वसुहृदः (अर्य्यम्णः) न्यायाधीशस्य (महि) महासुखप्रदम् (प्सरः) यं प्सांति भुञ्जते स भोगः (वरुणस्य) सर्वोत्कृष्टस्य ॥७॥

अन्वय:

सर्वैः किं कृत्वैतत्सुखं प्रापयितव्यमित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - वयं सखायः सन्तो मित्रस्यार्य्यम्णो वरुणस्य च महि स्तोमं कथा राधामास्माकं कथं प्सरः सुखभोगः स्यात् ॥७॥
भावार्थभाषाः - यदा केचित्कंचित्पृच्छेयुर्वयं केन प्रकारेण मैत्रीन्यायोत्तमविद्याः प्राप्नुयामेति स तान् प्रत्येवं ब्रूयात्परस्परं विद्यादानपरोपकाराभ्यामेवैतत्सर्वं प्राप्तुं शक्यं नैतेन विना कश्चित्किंचिदपि सुखं साद्धुं शक्नोतीति ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जर एखाद्या माणसाने एखाद्या माणसाला विचारले की, आम्ही कोणत्या प्रकारे मैत्री, न्याय व उत्तम विद्या प्राप्त करावी? त्याने असे म्हणावे की, परस्पर मैत्री, न्याय व उत्तम विद्यादान व परोपकार यांनीच हे सर्व प्राप्त होऊ शकते. याशिवाय कोणताही माणूस, कोणतेही सुख मिळवू शकत नाही. ॥ ७ ॥