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क्व॑ नू॒नं कद्वो॒ अर्थं॒ गन्ता॑ दि॒वो न पृ॑थि॒व्याः । क्व॑ वो॒ गावो॒ न र॑ण्यन्ति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kva nūnaṁ kad vo arthaṁ gantā divo na pṛthivyāḥ | kva vo gāvo na raṇyanti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क्व॑ । नू॒नम् । कत् । वः॒ । अर्थ॑म् । गन्ता॑ । दि॒वः । न । पृ॒थि॒व्याः । क्व॑ । वः॒ । गावः॑ । न । र॒ण्य॒न्ति॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:38» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को परस्पर किस प्रकार प्रश्नोत्तर करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम (न) जैसे (कत्) कब (नूनम्) निश्चय से (पृथिव्याः) भूमि के बाष्प और (दिवः) प्रकाश कर्मवाले सूर्य की (गावः) किरणें (अर्थम्) पदार्थों को (गन्त) प्राप्त होती हैं वैसे (क्व) कहाँ (वः) तुम्हारे अर्थ को (गन्त) प्राप्त होते हो जैसे (गावः) गौ आदि पशु अपने बछड़ों के प्रति (रण्यन्ति) शब्द करते हैं वैसे तुम्हारी गाय आदि शब्द करते हुओं के समान वायु कहाँ शब्द करते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में दो उपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो जैसे सूर्य की किरणें पृथिवी में स्थित हुए पदार्थों को प्रकाश करती हैं वैसे तुम भी विद्वानों के समीप जाकर, कहाँ पवनों का नियोग करना चाहिये ऐसा पूछ कर अर्थों को प्रकाश करो और जैसे गौ अपने बछड़ों के प्रति शब्द करके दौड़ती हैं वैसे तुम भी विद्वानों के सङ्ग करने को प्राप्त हो तथा हम लोगों की इन्द्रियाँ वायु के समान कहाँ स्थित होकर अर्थों को प्राप्त होती हैं ऐसा पूछ कर निश्चय करो ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(क्व) कुत्र (नूनम्) निश्चयार्थे (कत्) कदा (वः) युष्माकम् (अर्थम्) द्रव्यं (गन्त) गच्छत गच्छन्ति वा। अत्र पक्षे लडर्थे लोट्। बहुलं छन्दसीति शपोलुक्। तत्पनप्तन० इति तवादेशो ङित्वाभावादनुनासिकलोपाभावः। द्वद्यचोतस्तिङ् इति दीर्घश्च। (दिवः) द्योतनकर्मणः सूर्यस्य (न) इव (पृथिव्याः) भूमेरुपरि (क्व) कस्मिन् (वः) युष्माकम् (गावः) पशव इन्द्रियाणि वा (न) उपमार्थे (रण्यन्ति) रणन्ति शब्दयन्ति। अत्र व्यत्ययेन शपः स्थाने श्यन् ॥२॥

अन्वय:

पुनस्ते कथं प्रश्नोत्तरं कुर्युरित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्या यूयं कन्नूनं पृथिव्या दिवो गावोऽर्थं गन्त क्व वो युष्माकमर्थं गन्त तथा वो युष्माकं गावो रण्यन्ति नेव मरुतः क्व रणन्ति ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालंकारौ। यथा सूर्यस्य किरणाः पृथिव्यां स्थितान् पदार्थान् प्रकाशयन्ति। तथा यूयमपि विदुषां समीपं प्राप्य क्व वायूनां नियोगः कर्त्तव्य इति तान् पृष्ट्वाऽर्थान् प्रकाशयत। यथा गावः स्ववत्सान् प्रति शब्दयित्वा धावन्ति तथा यूयमपि विदुषां संगं कर्त्तुं शीघ्रं गच्छत गत्वा शब्दयित्वाऽस्माकमिन्द्रियाणि वायुवत् क्व स्थित्वाऽर्थान् प्रति गच्छन्तीति पृष्ट्वा युष्माभिर्निश्चेतव्यम् ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. हे माणसांनो जशी सूर्याची किरणे पृथ्वीवरील पदार्थांना प्रकाशित करतात तसेच तुम्हीही विद्वानांजवळ जाऊन वायूचा उपयोग कुठे केला पाहिजे हे विचारून अर्थ प्रकाशित केला पाहिजे व जशा गाई हंबरून आपल्या वासरासाठी पळत सुटतात तसा तुम्ही विद्वानांचा संग करा व आमची इंद्रिये वायूप्रमाणे कुठे स्थित राहून अर्थ प्राप्त करतात हे विचारून निश्चय करा. ॥ २ ॥