वांछित मन्त्र चुनें
देवता: मरूतः ऋषि: कण्वो घौरः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

को वो॒ वर्षि॑ष्ठ॒ आ न॑रो दि॒वश्च॒ ग्मश्च॑ धूतयः । यत्सी॒मन्तं॒ न धू॑नु॒थ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ko vo varṣiṣṭha ā naro divaś ca gmaś ca dhūtayaḥ | yat sīm antaṁ na dhūnutha ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कः । वः । वर्षि॑ष्ठः । आ । न॒रः॒ । दि॒वः । च॒ । ग्मः । च॒ । धू॒त॒यः॒ । यत् । सी॒म् । अन्त॑म् । न । धू॒नु॒थ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:37» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:13» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:6


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर इन पवनों से मनुष्यों को क्या-२ करना वा जानना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् मनुष्यो ! (धूतयः) शत्रुओं को कंपानेवाले (नरः) नीतियुक्त (यत्) ये तुम लोग (दिवः) प्रकाशवाले सूर्य आदि (च) वा उनके संबन्धी और तथा (ग्मः) पृथिवी (च) और उनके संबन्धी प्रकाश रहित लोकों को (सीम्) सब ओर से अर्थात् तृण वृक्ष आदि अवयवों के सहित ग्रहण करके कम्पाते हुए वायुओं के (न) समान शत्रुओं का (अन्तम्) नाश कर दुष्टों को जब (आधूनुथ) अच्छे प्रकार कम्पाओ तब (वः) तुम लोगों के बीच में (कः) कौन (वर्षिष्ठः) यथावत् श्रेष्ठ विद्वान् प्रसिद्ध न हो ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में उपमालङ्कार है। विद्वान् राजपुरुषों को चाहिये कि जैसे कोई बलवान् मनुष्य निर्बल मनुष्य के केशों का ग्रहण करके कम्पाता और जैसे वायु सब लोकों का ग्रहण तथा चलायमान कर के अपनी-२ परिधि में प्राप्त करते हैं वैसे ही सब शत्रुओं को कम्पा और उनके स्थानों से चलायमान कर के प्रजा की रक्षा करें ॥६॥ मोक्षमूलर साहिब का अर्थ कि हे मनुष्यो तुम्हारे बीच में बड़ा कौन है तथा तुम आकाश वा पृथिवी लोक को कम्पानेवाले हो जब तुम धारण किये हुए वस्त्र का प्रान्त भाग कंपने समान उनको कंपित करते हो। सायणाचार्य के कहे हुए अन्त शब्द के अर्थ को मैं स्वीकार नहीं करता किन्तु विलसन आदि के कहे हुए को स्वीकार करता हूँ। यह अशुद्ध और विपरीत है क्योंकि इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे राजपुरुष शत्रुओं और अन्य मनुष्य तृणकाष्ठ आदि को ग्रहण करके कम्पाते हैं वैसे वायु भी हैं इस अर्थ का विद्वानों के सकाश से निश्चय करना चाहिये इस प्रकार कहे हुए व्याख्यान से । जैसा सायणाचार्य का किया हुआ अर्थ व्यर्थ है वैसा ही मोक्षमूलर साहिब का किया हुआ अर्थ अनर्थ है ऐसा हम सब सज्जन लोग जानते हैं ॥६॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

(कः) प्रश्ने (वः) युष्माकं मध्ये (वर्षिष्ठः) अतिशयेन वृद्धः (आ) समन्तात् (नरः) नयन्ति ये ते नरस्तत्संबुद्धौ (दिवः) द्योतकान् सूर्यादिलोकान् (च) समुच्चये (ग्मः) प्रकाशरहितपृथिव्यादिलोकान्। ग्मेतिपृथिवीनामसु पठितम्। निघं० १।१। अत्र गमधातोर्बाहुलकादौणादिक आप्रत्यय उपधालोपश्च। (च) तत्संबंधितश्च (धूतयः) धून्वन्ति ये ते (यत्) ये (सीम्) सर्वतः (अन्तम्) वस्त्रप्रान्तम् (न) इव (धूनुथ) शत्रून् कम्पयत ॥६॥

अन्वय:

पुनरेतेभ्योप्रजाराजजनाभ्यां किं किं कार्य्यं ज्ञातव्यं चेत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे धूतयो नरो विद्वांसो मनुष्या यद्ये यूयं दिवः सूर्यादिप्रकाशकाँल्लोकाँस्तत्सम्बन्धिनोऽन्याँश्च ग्मः ग्मपृथिवीस्तत्संबंधिन इतराँश्च सीं सर्वतस्तृणवृक्षाद्यवयवान् कंपयन्तो वायवो नेव शत्रुगणानामन्तं यदाधूनुथ समन्तात्कम्पयत तदा वो युष्माकं मध्ये को वर्षिष्ठो विद्वान्न जायेत ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। विद्वद्भी राजपुरुषैर्यथाकश्चिद्बलवान्मनुष्यो निर्बलं केशान् गृहीत्वा। कम्पयति यथा च वायवः सर्वान् लोकान् धृत्वा कम्पयित्वा चालयित्वा स्वं स्वं परिधिं प्रापयन्ति तथैव सर्वं शत्रुगणं प्रकम्प्य तत्स्थानात्प्रचाल्य प्रजा रक्षणीया ॥६॥ मोक्षमूलरोक्तिः। हे मनुष्या युष्माकं मध्ये महान् कोस्ति यूयं कंपयितार आकाशपृथिव्योः। यदा यूयं धारितवस्त्रप्रान्तकम्पनवत् तान् कम्पयत। अन्तशब्दार्थं सायणाचार्योक्तं न स्वीकुर्वे किंतु विलसनाख्यादिभिरुक्तमित्यशुद्धमिति। कुतः। अत्रोपमालंकारेण यथा राजपुरुषाः शत्रूनितरे मनुष्यास्तृणकाष्ठादिकं च गृहीत्वा कम्पयन्ति तथा वायवोऽग्निपृथिव्यादिकं गृहीत्वा कम्पयन्तीत्यर्थस्य विदुषां सकाशान्निश्चयः कार्य इत्युक्तत्वात्। यथा सायणाचार्येण कृतोर्थो व्यर्थोस्ति तथैव मोक्षमूलरोक्तोऽस्तीति विजानीमः ॥६॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा एखादा बलवान मनुष्य निर्बल माणसांच्या केसांना धरून हलवितो व जसे वायू सर्व गोलांना ग्रहण करून चलायमान करतो व आपले क्षेत्र काबीज करतो तसेच सर्व शत्रूंना कंपित करून विद्वान राजपुरुषांनी त्यांच्यावर कब्जा करून प्रजेचे रक्षण करावे. ॥ ६ ॥
टिप्पणी: मोक्षमूलर साहेबांचा अर्थ असा आहे की, हे माणसांनो ! तुमच्यामध्ये मोठे कोण आहे? तुम्ही आकाश किंवा पृथ्वीला कंपित करणारे आहात. तुम्ही धारण केलेल्या वस्त्राचे टोक कंपित होत असल्यासारखे त्यांना कंपित करता. सायणाचार्यांनी सांगितलेल्या अन्त शब्दाचा अर्थ मी स्वीकारीत नाही; परंतु विल्सन इत्यादींनी सांगितलेला स्वीकारतो. हे अशुद्ध व विपरीत आहे. कारण या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे राजपुरुष शत्रूंना व इतर माणसे तृणकाष्ठाला कंपित करतात तसे वायूही आहेत. या अर्थाचा विद्वानांच्या साह्याने निश्चय केला पाहिजे. या प्रकारच्या व्याख्येने जसा सायणाचार्यांनी केलेला अर्थ व्यर्थ आहे तसेच मोक्षमूलर साहेबांचा केलेला अर्थ अनर्थ आहे, हे आम्ही सर्व जाणतो. ॥ ६ ॥