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अस्ति॒ हि ष्मा॒ मदा॑य वः॒ स्मसि॑ ष्मा व॒यमे॑षाम् । विश्वं॑ चि॒दायु॑र्जी॒वसे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asti hi ṣmā madāya vaḥ smasi ṣmā vayam eṣām | viśvaṁ cid āyur jīvase ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अस्ति॑ । हि । स्म॒ । मदा॑य । वः॒ । स्मसि॑ । स्म॒ । व॒यम् । ए॒षा॒म् । विश्व॑म् । चि॒त् । आयुः॑ । जी॒वसे॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:37» मन्त्र:15 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:14» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे वायु किस-२ प्रयोजन के लिये हैं, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् मनुष्यो ! (एषाम्) जानी हे विद्या जिन की उन पवनों के सकाश से (हि) जिस कारण (स्म) निश्चय करके (वः) तुम लोगों के (मदाय) आनन्दपूर्वक (जीवसे) जीने के लिये (विश्वम्) सब (आयुः) अवस्था है इसी प्रकार (वयम्) आप से उपदेश को प्राप्त हुए हम लोग (चित्) भी (स्मसि, स्म) निरन्तर होवें ॥१५॥
भावार्थभाषाः - जैसे योगाभ्यास करके प्राणविद्या और वायु के विकारों को ठीक-२ जाननेवाले पथ्यकारी विद्वान् लोग आनन्दपूर्वक सब आयु भोगते हैं वैसे अन्य मनुष्यों को भी करनी चाहिये कि उन विद्वानों के सकाश से उस वायु विद्या को जानके संपूर्ण आयु भोगें ॥१५॥ मोक्षमूलर की उक्ति है कि निश्चय करके यहां तुम्हारी प्रसन्नता पुष्कल है हम लोग सब दिन तुम्हारे भृत्य हैं जो भी हम संपूर्ण आयु भर जीते हैं- यह अशुद्ध है। क्योंकि यहां प्राणरूप वायु से जीवन होता है हम लोग इस विद्या को जानते हैं इस प्रकार इस मन्त्र का अर्थ है ॥१५॥ इसी प्रकार कि जैसे यहां मोक्षमूलर साहेब ने अपनी कपोल कल्पना से मंत्रो के अर्थ विरुद्ध वर्णन किये हैं वैसे आगे भी इनकी उक्ति अन्यथा ही है ऐसा सबको जानना चाहिये। जब पक्षपात को छोड़ कर मेरे रचे हुए मन्त्रार्थ भाष्य वा मोक्षमूलरादिकों के कहे हुए की परीक्षा करके विवेचन करेंगे तब इनके किये हुए ग्रन्थों की अशुद्धि जान पड़ेगी बहुत को थोड़े ही लिखने से जान लेवें आगे। आगे अब बहुत लिखने से क्या है। इस सूक्त में अग्नि के प्रकाश करनेवाले सब चेष्टा बल और आयु के निमित्त वायु और उस वायु विद्या को जाननेवाले राज* प्रजा के विद्वानों के गुण वर्णन से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये। यह चौदहवां वर्ग और सैंतीसवां सूक्त समाप्त हुआ ॥३७॥सं० उ० के अनुसार जाने। सं०* सं० वा० के अनुसार राजा, प्रजा, अश्वों और विद्वानों। सं०
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(अस्ति) वर्त्तते (हि) यतः (स्म) खलु। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। अविहितलक्षणो मूर्द्धन्यः सुषामादिषु द्रष्टव्यः। अ० ८।३।९८। इति वार्त्तिकेन मूर्द्धन्यादेशः। इदं पदं सायणाचार्येण व्याकरणविषयमबुद्ध्वा त्यक्तम्। (मदाय) आनन्दाय (वः) युष्माकम् (स्मसि) भवेम। अत्र लिङर्थे लट्। इदन्तोमसि* इतीकारागमः (स्म) तैरन्तर्ये। अत्रापि पूर्ववन्मूर्द्धन्यादेशः। (वयम्) उपदेश्या जनाः (एषाम्) ज्ञातविद्यानां मरुतां सकाशात् (विश्वम्) सर्वम् (चित्) अपि (आयुः) प्राणधारणम् (जीवसे) जीवितुम्। अत्र तुमर्थे०¤ इत्यसेन्प्रत्ययः ॥१५॥ *[अ० ७।१।४६।] ¤[अ० ३।४।९।]

अन्वय:

पुनस्ते वायवः किं प्रयोजनाः सन्तीत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वांसो मनुष्या एषां हि स्म वो युष्माकं मदाय जीवसे विश्वमायुरस्ति तथाभूता वयं चित्स्मसि स्म ॥१५॥
भावार्थभाषाः - यथा योगाभ्यासेन प्राणविद्याविदो वायुविकारज्ञाः पथ्यकारिणो जनाश्वानन्देन सर्वमायुर्भुञ्जते तथैवेतरैर्जनैस्तत्सकाशात्तद्विद्यां ज्ञात्वा सर्वमायुर्भोक्तव्यम् ॥१५॥ मोक्षमूलरोक्तिः निश्चयेन तत्र युष्माकं प्रसन्नता पुष्कलास्ति वयं सदा युष्माकं भृत्याः स्मः। यद्यपि वयं सर्वमायुर्जीवेमेत्यशुद्धास्ति कुतः। अत्र प्रमाणरूपेण वायुना जीवनं भवतीति वयमेतद्विद्यां विजानीमेत्युक्तत्वादिति ॥१५॥ एवमेव यथात्र मोक्षमूलरेण कपोलकल्पनया मन्त्रार्था विरुद्धा वर्णितास्तघेवाग्रेप्येतदुक्तिरन्यथास्तीति वेदितव्यम्। यदा पक्षपातविरहा विद्वांसो मद्रचितस्य मंत्रार्थ भाष्यस्य मोक्षमूलरोक्तादेश्च सम्यक् परीक्ष्य विवेचनं करिष्यन्ति तदैतेषां कृतावशुद्धिर्विदिता भविष्यतीत्यलमिति विस्तरेणा अत्राग्निप्रकाशकस्य सर्वचेष्टाबलायुर्निमित्तस्य वायोस्तद्विद्याविदां राजप्रजाश्वविदुषां च गुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति चतुर्दशो वर्गः सप्तत्रिंशं सूक्तश्च समाप्तम् ॥३७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे योगाभ्यास करून प्राणविद्या व वायूच्या विकारांना यथायोग्य जाणून त्याप्रमाणे पथ्य करून विद्वान लोक आनंदाने पूर्ण आयुष्य भोगतात तसे इतर माणसांनीही केले पाहिजे की, त्या विद्वानांच्या संगतीने वायूविद्येला जाणून संपूर्ण आयुष्य भोगावे. ॥ १५ ॥
टिप्पणी: मोक्षमूलरची उक्ती अशी की, निश्चयपूर्वक तुमची तेथे पुष्कळ प्रसन्नता आहे. आम्ही सदैव तुमचे सेवक आहोत. जे आम्ही संपूर्ण आयुष्यभर जगलेले आहोत. हे अशुद्ध आहे. कारण येथे प्राणरूप वायूमुळे जीवन असते. आम्ही ही विद्या जाणतो. याप्रकारे या मंत्राचा हा अर्थ आहे. ॥ १५ ॥ या प्रकारे येथे जसे मोक्षमूलर साहेबांनी आपल्या कपोलकल्पनेने मंत्रांच्या अर्थाचे विरुद्ध वर्णन केलेले आहे तसे पुढेही त्यांची उक्ती अनर्थकच आहे. असे सर्वांनी जाणले पाहिजे. जेव्हा पक्षपात सोडून मी केलेले मंत्रार्थ भाष्य किंवा मोक्षमूलर इत्यादींनी केलेले भाष्य यांची परीक्षा करून विवेचन करू तेव्हा त्यांच्या ग्रंथांची अशुद्धी कळेल. जास्त असलेले थोडक्यात जाणून घ्यावे. यापुढे अधिक काय लिहावे?