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क्व १॒॑ त्री च॒क्रा त्रि॒वृतो॒ रथ॑स्य॒ क्व १॒॑ त्रयो॑ व॒न्धुरो॒ ये सनी॑ळाः । क॒दा योगो॑ वा॒जिनो॒ रास॑भस्य॒ येन॑ य॒ज्ञं ना॑सत्योपया॒थः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kva trī cakrā trivṛto rathasya kva trayo vandhuro ye sanīḻāḥ | kadā yogo vājino rāsabhasya yena yajñaṁ nāsatyopayāthaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क्व॑ । त्री । च॒क्रा । त्रि॒वृतः॑ । रथ॑स्य । क्व॑ । त्रयः॑ । व॒न्धुरः॑ । ये । सनी॑ळाः । क॒दा । योगः॑ । वा॒जिनः॒ । रास॑भस्य । येन॑ । य॒ज्ञम् । ना॒स॒त्या॒ । उ॒प॒या॒थः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:34» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:5» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:7» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उनसे क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नासत्या) सत्य गुण और स्वभाववाले कारीगर लोगो ! तुम दोनों (यज्ञम्) दिव्य गुण युक्त विमान आदि यान से जाने-आने योग्य मार्ग को (कदा) कब (उपयाथः) शीघ्र जैसे निकट पहुंच जावें वैसे पहुंचते हो और (येन) जिससे पहुंचते हो उस (रासभस्य) शब्द करनेवाले (वाजिनः) प्रशंसनीय वेग से युक्त (त्रिवृतः) रचन चालन आदि सामग्री से पूर्ण (रथस्य) और भूमि जल अन्तरिक्ष मार्ग में रमण करानेवाले विमान में (क्व) कहाँ (त्री) तीन (चक्रा) चक्र रचने चाहिये और इस विमानादि यान में (ये) जो (सनीडाः) बराबर बन्धनों के स्थान वा अग्नि रहने का घर (बन्धुरः) नियमपूर्वक चलाने के हेतु कोष्ठ होते हैं उनका (योगः) योग (क्व) कहाँ करना चाहिये ये तीन प्रश्न हैं ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में कहे हुए तीन प्रश्नों के ये उत्तर जानने चाहिये विभूति की इच्छा रखनेवाले पुरुषों को उचित है कि रथ के आदि, मध्य और अन्त में सब कलाओं के बन्धनों के आधार के लिये तीन बंधन विशेष संपादन करें तथा तीन कला घूमने-घुमाने के लिये संपादन करें एक मनुष्यों के बैठने दूसरी अग्नि को स्थिति और तीसरी जल की स्थिति के लिये करके जब-जब चलने की इच्छा हो तब-२ यथा योग्य जलकाष्ठों को स्थापन, अग्नि को युक्त और कला के वायु से प्रदीप्त करके बाफ के वेग से चलाये हुए यान से शीघ्र दूर स्थान को भी निकट के समान जाने को समर्थ होवें। क्योंकि इस प्रकार किये विना निर्विघ्नता से स्थानान्तर को कोई मनुष्य शीघ्र नहीं जा सकता ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(क्व) कस्मिन् (त्री) त्रीणि (चक्रा) यानस्य शीघ्रं गमनाय निर्मितानि कलाचक्राणि। अत्रोभयत्र शेश्छंद०। इति शेर्लोपः। (त्रिवृतः) त्रिभी रचनचालनसामग्रीभिः पूर्णस्य (रथस्य) त्रिषु भूमिजलान्तरिक्षमार्गेषु रमन्ते येन तस्य (क्व) (त्रयः) जलाग्निमनुष्यपदार्थस्थित्यर्थावकाशाः (बन्धुरः) बन्धनविशेषाः। सुपांसुलुग् इति जसः स्थाने सुः। (ये) प्रत्यक्षाः (सनीडाः) समाना नीडा बन्धना धारा गृहविशेषा अग्न्यागारविशेषा वा येषु ते (कदा) कस्मिन् काले (योगः) युज्यते यस्मिन्सः (वाजिनः) प्रशस्तो वाजो वेगोऽस्यास्तीति तस्य। अत्र प्रशंसार्थ इतिः। (रासभस्य) रासयन्ति शब्दयन्ति येन वेगेन तस्य रासभावश्विनोरित्यादिष्टोपयोजननामसु पठितम्। निघं० १।१५। (येन) रथेन (यज्ञम्) गमनयोग्यं मार्गे (नासत्या) सत्यगुणस्वभावौ (उपयाथः) शीघ्रमभीष्टस्थाने सामीप्यं प्रापयथः ॥९॥

अन्वय:

पुनस्ताभ्यां किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे नासत्यावश्विनौ शिल्पिनौ युवां येन विमानादियानेन यज्ञं संगन्तव्यं मार्गं कदोपयाथो दूरदेशस्थं स्थानं सामीप्यवत्प्रापयथः तस्य च रासभस्य वाजिनस्त्रिवृतो रथस्य मध्ये क्व त्रीणि चक्राणि कर्त्तव्यानि क्व चास्मिन् विमानादियाने ये सनीडास्त्रयो बन्धुरास्तेषां योगः कर्त्तव्य इति त्रयः प्रश्नाः ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्रोक्तानां त्रयाणां प्रश्नानामेतान्युत्तराणि वेद्यानि विभूतिकामैर्नरैरथस्यादिमध्यान्तेषु सर्वकलाबन्धनाधाराय त्रयो बन्धनविशेषाः कर्त्तव्याः। एकं मनुष्याणां स्थित्यर्थं द्वितीयमग्निस्थित्यर्थं तृतीयं जलस्थित्यर्थं च कृत्वा यदा यदा गमनेच्छा भवेत्तदा तदा यथायोग्यं काष्ठानि संस्थाप्याग्निं योजयित्वा कलायंत्रोद्भावितेन वायुना संदीप्य बाष्पवेगेन चालितेन यानेन सद्यो दूरमपि स्थानं समीपवत्प्राप्तं शक्नुयुः नहीदृशेन यानेन विना कश्चिन्निर्विघ्नतया स्थानान्तरं सद्यो गंतुं शक्नोतीति ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात विचारलेल्या तीन प्रश्नांची ही उत्तरे जाणली पाहिजेत. शक्तीची (समृद्धीची) इच्छा बाळगणाऱ्या माणसांनी रथाच्या आरंभी, मध्ये व शेवटी सर्व कळांच्या बंधनांच्या आधारासाठी तीन बंधने विशेष तयार करावीत व तीन कळा फिरण्यासाठी व फिरविण्यासाठीही तयार कराव्यात. एक माणसाला बसण्यासाठी, दुसरी अग्नीची स्थिती व तिसरी जलाची स्थिती. याप्रमाणे जेव्हा जेव्हा जाण्याची इच्छा असेल तेव्हा तेव्हा यथायोग्य जलकाष्ठांना स्थापन करून अग्नीला युक्त करून यंत्राला वायूने प्रदीप्त करून वाफेवर चालविलेल्या (विमानाने) यानाने तत्काळ दूर स्थानीही निकट असल्याप्रमाणे पोहोचविण्यास समर्थ व्हावे. कारण या प्रकारे वागल्याशिवाय कोणताही मनुष्य निर्विघ्नपणे स्थानांतर करू शकत नाही. ॥ ९ ॥