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त्वं तम॑ग्ने अमृत॒त्व उ॑त्त॒मे मर्तं॑ दधासि॒ श्रव॑से दि॒वेदि॑वे। यस्ता॑तृषा॒ण उ॒भया॑य॒ जन्म॑ने॒ मयः॑ कृ॒णोषि॒ प्रय॒ आ च॑ सू॒रये॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ tam agne amṛtatva uttame martaṁ dadhāsi śravase dive-dive | yas tātṛṣāṇa ubhayāya janmane mayaḥ kṛṇoṣi praya ā ca sūraye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। तम्। अ॒ग्ने॒। अ॒मृ॒त॒ऽत्वे। उ॒त्ऽत॒मे। मर्त॑म्। द॒धा॒सि॒। श्रव॑से। दि॒वेऽदि॑वे। यः। त॒तृ॒षा॒णः। उ॒भया॑य। जन्म॑ने। मयः॑। कृ॒णोषि॑। प्रयः॑। आ। च॒। सू॒रये॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:31» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:33» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:7» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह ईश्वर जीवों के लिये क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) जगदीश्वर ! आप (यः) जो (सूरिः) बुद्धिमान् मनुष्य (दिवेदिवे) प्रतिदिन (श्रवसे) सुनने के योग्य अपने लिये मोक्ष को चाहता है, उस (मर्त्तम्) मनुष्य को (उत्तमे) अत्युत्तम (अमृतत्वे) मोक्षपद में स्थापन करते हो और जो बुद्धिमान् अत्यन्त सुख भोग कर फिर (उभयाय) पूर्व और पर (जन्मने) जन्म के लिये चाहना करता हुआ उस मोक्षपद से निवृत्त होता है, उस (सूरये) बुद्धिमान् सज्जन के लिये (मयः) सुख और (प्रयः) प्रसन्नता को (आ कृणोषि) सिद्ध करते हो ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - जो ज्ञानी धर्मात्मा मनुष्य मोक्षपद को प्राप्त होते हैं, उनका उस समय ईश्वर ही आधार है, जो जन्म हो गया वह पहिला और जो मृत्यु वा मोक्ष होके होगा वह दूसरा, जो है वह तीसरा और जो विद्या वा आचार्य से होता है वह चौथा जन्म है। ये चार जन्म मिल के जो मोक्ष के पश्चात् होता है वह दूसरा जन्म है। इन दोनों जन्मों के धारण करने के लिये सब जीव प्रवृत्त हो रहे हैं। मोक्षपद से छूट कर संसार की प्राप्ति होती है, यह भी व्यवस्था ईश्वर के आधीन है ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरीश्वरो जीवेभ्यः किं करोतीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे अग्ने जगदीश्वर! त्वं यः सूरिर्मेधावी दिवेदिवे श्रवसे सन्मोक्षमिच्छति तं मर्त्तं मनुष्यमुत्तमेऽमृतत्वे मोक्षपदे दधासि, यश्च सूरिर्मेधावी मोक्षसुखमनुभूय पुनरुभयाय जन्मने तातृषाणः सँस्तस्मात् पदान्निवर्त्तते तस्मै सूरये मयः प्रयश्चाकृणोषि ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) जगदीश्वरः (तम्) पूर्वोक्तं धर्मात्मानम् (अग्ने) मोक्षादिसुखप्रदेश्वर ! (अमृतत्वे) अमृतस्य मोक्षस्य भावे (उत्तमे) सर्वथोत्कृष्टे (मर्त्तम्) मनुष्यम्। मर्त्ता इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (दधासि) धरसि (श्रवसे) श्रोतुमर्हाय भवते (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (यः) मनुष्यः (तातृषाणः) पुनः पुनर्जन्मनि तृष्यति। अत्र छन्दसि लिट् इति लडर्थे लिट्, लिटः कानज्वा इति कानच् वर्णव्यत्ययेन दीर्घत्वं च। (उभयाय) पूर्वपराय (जन्मने) शरीरधारणेन प्रसिद्धाय (मयः) सुखम्। मय इति सुखनामसु पठितम् । (निघं०३.६) (कृणोषि) करोषि (प्रयः) प्रीयते काम्यते यत् तत्सुखम् (आ) समन्तात् (च) समुच्चये (सूरये) मेधाविने। सूरिरिति मेधाविनामसु पठितम् । (निघं०३.१५) ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - ये ज्ञानिनो धर्मात्मानो मनुष्या मोक्षपदं प्राप्नुवन्ति तदानीं तेषामाधार ईश्वर एवास्ति। यज्जन्मातीतं तत्प्रथमं यच्चागामि तद्द्वितीयं यद्वर्तते तत्तृतीयं यच्च विद्याचार्य्याभ्यां जायते तच्चतुर्थम्। एतच्चतुष्टयं मिलित्वैकं जन्म यत्र मुक्तिं प्राप्य मुक्ताः पुनर्जायन्ते तद्द्वितीयजन्मैतदुभयस्य धारणाय सर्वे जीवाः प्रवर्त्तन्त इतीयं व्यवस्थेश्वराधीनास्तीति वेद्यम् ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी ज्ञानी धर्मात्मा माणसे मोक्षपद प्राप्त करतात त्यांना त्या वेळी ईश्वराचाच आधार असतो. जो जन्म झाला तो पहिला, जो मृत्यू व मोक्ष असेल तो दुसरा व जो वर्तमान आहे तो तिसरा आणि जो विद्या किंवा आचार्याद्वारे होतो तो चौथा जन्म होय. हे चार जन्म मिळून एक व जो मोक्षानंतर होतो तो दुसरा जन्म होय. हे दोन्ही जन्म धारण करण्यासाठी सर्व जीव प्रवृत्त होतात. मोक्षपदातून सुटून पुन्हा संसाराची प्राप्ती होते ही अवस्था ईश्वराच्या अधीन असते. ॥ ७ ॥