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योगे॑योगे त॒वस्त॑रं॒ वाजे॑वाजे हवामहे। सखा॑य॒ इन्द्र॑मू॒तये॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yoge-yoge tavastaraṁ vāje-vāje havāmahe | sakhāya indram ūtaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

योगे॑ऽयोगे। त॒वःऽत॑रम्। वाजे॑ऽवाजे। ह॒वा॒म॒हे॒। सखा॑यः। इन्द्र॑म्। ऊ॒तये॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:30» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:29» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ईश्वर वा सेनाध्यक्ष कैसे हैं, इस का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग (सखायः) परस्पर मित्र होकर अपनी (ऊतये) उन्नति वा रक्षा के लिये (योगेयोगे) अति कठिनता से प्राप्त होनेवाले पदार्थ-पदार्थ में वा (वाजेवाजे) युद्ध-युद्ध में (तवस्तरम्) जो अच्छे प्रकार वेदों से जाना जाता है, उस (इन्द्रम्) सब से विजय देनेवाले जगदीश्वर वा दुष्ट शत्रुओं को दूर करने और आत्मा वा शरीर के बलवाले धार्म्मिक सभाध्यक्ष को (हवामहे) बुलावें अर्थात् बार-बार उसकी विज्ञप्ति करते रहें॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को परस्पर मित्रता सिद्ध कर अलभ्य पदार्थों की रक्षा और सब जगह विजय करना चाहिये तथा परमेश्वर और सेनापति का नित्य आश्रय करना चाहिये और यह भी स्मरण रखना चाहिये कि उक्त आश्रय से ही उत्तम कार्यसिद्धि होने के योग्य हो, सो ही नहीं, किन्तु विद्या और पुरुषार्थ भी उनके लिये करने चाहिये॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरीश्वरसेनाध्यक्षौ कीदृशौ स्त इत्युपदिश्यते॥

अन्वय:

वयं सखायो भूत्वा स्वोतये योगेयोगे वाजेवाजे तवस्तरमिन्द्रं परमात्मानं सभाध्यक्षं वा हवामहे॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (योगेयोगे) अनुपात्तस्योपात्तलक्षणो योगस्तस्मिन् प्रतियोगे (तवस्तरम्) तूयते विज्ञायत इति तवाः सोऽतिशयितस्तम्। सायणाचार्येणात्र विन्प्रत्ययस्य छान्दसो लोप इति यदुक्तं तदशुद्धं प्रमाणाभावात् (वाजेवाजे) युद्धं युद्धं प्रति (हवामहे) आह्वयामहि। अत्र लेटोऽस्मद्बहुवचने लेटोऽडाटौ। (अष्टा०३.४.९४) अनेनाडागमे कृते। बहुलं छन्दसि। (अष्टा०६.१.३४) इति सम्प्रसारणम्। (सखायः) सुहृदो भूत्वा (इन्द्रम्) सर्वविजयप्रदं जगदीश्वरं वा दुष्टशत्रुनिवारकमात्मशरीरबलवन्तं धार्म्मिकं वीरं सेनापतिम् (ऊतये) रक्षणाद्याय विजयसुखप्राप्तये वा॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्मित्रतां सम्पाद्य प्राप्तानां पदार्थानां रक्षणं सर्वत्र विजयश्च कार्यः। परमेश्वरः सेनापतिश्च नित्यमाश्रयणीयः नैवैतावन्मात्रेणैवैतत्सिद्धिर्भवितुमर्हति। किं तर्हि? विद्यापुरुषार्थाभ्यामेतस्य सिद्धिर्जायत इति॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी परस्पर मैत्री करून प्राप्त पदार्थांचे रक्षण करून सर्वत्र विजय मिळविला पाहिजे. परमेश्वर व सेनापती यांचा सदैव आश्रय घेतला पाहिजे व याचे स्मरण केले पाहिजे की वरील आश्रयानेच उत्तम कार्यसिद्धी होते. इतकेच नव्हे तर विद्या व पुरुषार्थ त्यासाठीच केला पाहिजे. ॥