वांछित मन्त्र चुनें

पता॑ति कुण्डृ॒णाच्या॑ दू॒रं वातो॒ वना॒दधि॑। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

patāti kuṇḍṛṇācyā dūraṁ vāto vanād adhi | ā tū na indra śaṁsaya goṣv aśveṣu śubhriṣu sahasreṣu tuvīmagha ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पता॑ति। कु॒ण्डृ॒णाच्या॑। दू॒रम्। वातः॑। वना॑त्। अधि॑। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वी॒ऽम॒घ॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:29» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:27» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:6


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में अशुद्ध वायु के निवारण का विधान किया है। ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (तुविमघ) अनेकविध धनों को सिद्ध करने हारे (इन्द्र) सर्वोत्कृष्ट विद्वान् ! आप जैसे (वातः) पवन (कुण्डृणाच्या) कुटिलगति से (वनात्) जगत् और सूर्य की किरणों से (अधि) ऊपर वा इनके नीचे से प्राप्त होकर आनन्द करता है, वैसे (तु) बारम्बार (सहस्रेषु) हजारह (अश्वेषु) वेग आदि गुणवाले घोड़े आदि (गोषु) पृथिवी, इन्द्रिय, किरण और चौपाए (शुभ्रिषु) शुद्ध व्यवहारों में सब प्राणियों और अप्राणियों को सुशोभित करता है, वैसे (नः) हम को (आशंसय) प्रशंसित कीजिये॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को ऐसा जानना चाहिये कि जो यह पवन है, वही सब जगह जाता हुआ अग्नि आदि पदार्थों से अधिक कुटिलता से गमन करने हारा और बहुत से ऐश्वर्य की प्राप्ति तथा पशु वृक्षादि पदार्थों के व्यवहार उनके बढ़ने-घटने और समस्त वाणी के व्यवहार का हेतु है॥६॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

इदानीमशुद्धवायोर्निवारणमुपदिश्यते॥

अन्वय:

हे तुविमघेन्द्र ! त्वं यथा वातः कुण्डृणाच्यागत्यावनाज्जगतः किरणेभ्यो वाधिपताति उपर्यधो गच्छेत् तथानुतिष्ठ सहस्रेषु गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु नोऽस्मानाशंसय॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पताति) गच्छेत् (कुण्डृणाच्या) यया कुटिलां गतिमञ्चति प्राप्नोति तया (दूरम्) विप्रकृष्टदेशम् (वातः) वायुः (वनात्) वन्यते सेव्यते तद्वनं जगत् तस्मात्किरणेभ्यो वा। वनमिति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (अधि) उपरिभावे (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। पूर्ववद्दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) परमविद्वन् (शंसय) (गोषु) पृथिवीन्द्रियकिरणचतुष्पात्सु (अश्वेषु) वेगादिगणेषु (शुभ्रिषु) शुद्धेषु व्यवहारेषु (सहस्रेषु) बहुषु (तुविमघ) तुवि बहुविधं धनं साध्यते येन तत्सम्बुद्धौ। अत्र पूर्ववद्दीर्घः॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरेवं वेदितव्यं योऽयं वायुः स एव सर्वतोऽभिगच्छन्नग्न्यादिभ्योऽधिकः कुटिलगतिर्बद्धैश्वर्यप्राप्तिः पशुवृक्षादीनां चेष्टावृद्धिभञ्जनकारकः सर्वस्य व्यवहारस्य च हेतुस्तीति बोध्यम्॥६॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की हा वारा सर्वत्र वाहत जातो व अग्नी इत्यादी पदार्थांद्वारे अधिक वक्रतेने गमन करतो व पुष्कळ ऐश्वर्याची प्राप्ती आणि पशू वृक्ष इत्यादी पदार्थांचे व्यवहार त्यांची वृद्धी व घट तसेच संपूर्ण वाणीच्या व्यवहाराचा हेतू आहे. ॥ ६ ॥