यच्चि॒द्धि त्वं गृ॒हेगृ॑ह॒ उलू॑खलक यु॒ज्यसे॑। इ॒ह द्यु॒मत्त॑मं वद॒ जय॑तामिव दुन्दु॒भिः॥
yac cid dhi tvaṁ gṛhe-gṛha ulūkhalaka yujyase | iha dyumattamaṁ vada jayatām iva dundubhiḥ ||
यत्। चि॒त्। हि। त्वम्। गृ॒हेऽगृ॑हे। उलू॑खलक। यु॒ज्यसे॑। इ॒ह। द्यु॒मत्ऽत॑मम्। व॒द॒। जय॑ताम्ऽइव। दु॒न्दु॒भिः॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
उक्त उलूखल से क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
तेनोलूखलेन किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥
हे उलूखलक ! विद्वँस्त्वं यद्धि गृहेगृहे युज्यसे तद्विद्यां समादधासि, स त्वमिह जयतां दुन्दुभिरिव द्युमत्तममुलूखलं वादयैतद्विद्यां (चित्) वदोपदिश॥५॥