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नमो॑ म॒हद्भ्यो॒ नमो॑ अर्भ॒केभ्यो॒ नमो॒ युव॑भ्यो॒ नम॑ आशि॒नेभ्यः॑। यजा॑म दे॒वान्यदि॑ श॒क्नवा॑म॒ मा ज्याय॑सः॒ शंस॒मा वृ॑क्षि देवाः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

namo mahadbhyo namo arbhakebhyo namo yuvabhyo nama āśinebhyaḥ | yajāma devān yadi śaknavāma mā jyāyasaḥ śaṁsam ā vṛkṣi devāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नमः॑। म॒हत्ऽभ्यः॑। नमः॑। अ॒र्भ॒केभ्यः॑। नमः॑। युव॑भ्यः। नमः॑। आ॒शि॒नेभ्यः॑। यजा॑म। दे॒वान्। यदि॑। श॒क्नवा॑म। मा। ज्याय॑सः॒। शंस॑म्। आ। वृ॒क्षि॒। दे॒वाः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:27» मन्त्र:13 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में सब का सत्कार करना अवश्य है, इस बात का प्रकाश किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवाः) सब विद्याओं को प्रकाशित करनेवाले विद्वानो ! हम लोग (महद्भ्यः) पूर्ण विद्यायुक्त विद्वानों के लिये (नमः) सत्कार अन्न (यजाम) करें और दें (अर्भकेभ्यः) थोड़े गुणवाले विद्यार्थियों के (नमः) तृप्ति (युवभ्यः) युवावस्था से जो बलवाले विद्वान् हैं, उनके लिये (नमः) सत्कार (आशिनेभ्यः) समस्त विद्याओं में व्याप्त जो बुड्ढे विद्वान् हैं, उनके लिये (नमः) सेवापूर्वक देते हुए (यदि) जो सामर्थ्य के अनुकूल विचार में (शक्नवाम) समर्थ हों तो (ज्यायसः) विद्या आदि उत्तम गुणों से अति प्रशंसनीय (देवान्) विद्वानों को (आयजाम) अच्छे प्रकार विद्या ग्रहण करें, इसी प्रकार हम सब जने (शंसम्) इनकी स्तुति प्रशंसा को (मा वृक्षि) कभी न काटें॥१३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में ईश्वर का यह उपदेश है कि मनुष्यों को चाहिये अभिमान छोड़कर अन्नादि से सब उत्तम जनों का सत्कार करें अर्थात् जितना धन पदार्थ आदि उत्तम बातों से अपना सामर्थ्य हो उतना उनका संग करके विद्या प्राप्त करें, किन्तु उनकी कभी निन्दा न करें॥१३॥पिछले सूक्त में अग्नि का वर्णन है उसको अच्छे प्रकार जाननेवाले विद्वान् ही होते हैं, उनका यहाँ वर्णन करने से छब्बीसवें सूक्तार्थ के साथ इस सत्ताईसवें सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये। पिछले सूक्त में अग्नि का वर्णन है उसको अच्छे प्रकार जाननेवाले विद्वान् ही होते हैं, उनका यहाँ वर्णन करने से छब्बीसवें सूक्तार्थ के साथ इस सत्ताईसवें सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सर्वेषां सत्कारः कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे देवा विद्वांसो वयं महद्भ्योऽन्नं यजाम दद्यामैवमर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यश्च नमो ददन्तो वयं यदि शक्नवाम ज्यायसो देवानायजाम समन्ताद् विद्यादानं कुर्यामैवं प्रतिजनोऽहमेतेषां शंसम्मावृक्षि कदाचिन्मा वर्जयेयम्॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नमः) सत्करणमन्नं वा। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (महद्भ्यः) पूर्णविद्यायुक्तेभ्यो विद्वद्भ्यः (नमः) प्रीणनाय (अर्भकेभ्यः) अल्पगुणेभ्यो विद्यार्थिभ्यः (नमः) सत्काराय (युवभ्यः) युवावस्थया बलिष्ठेभ्यो विद्वद्भ्यः (नमः) सेवायै (आशिनेभ्यः) सकलविद्याव्यापकेभ्यः स्थविरेभ्यः (यजाम) दद्याम (देवान्) विदुषः (यदि) सामर्थ्याऽनुकूलविचारे (शक्नवाम) समर्था भवेम (मा) निषेधार्थे (ज्यायसः) विद्याशुभगुणैर्ज्येष्ठान् (शंसम्) शंसन्ति येन तं स्तुतिसमूहम् (आ) समन्तात् (वृक्षि) वर्जयेयम्। अत्र ‘वृजी वर्जन’ इत्यस्माल्लिडर्थे लुङ् छन्दस्युभयथा इति सार्वधातुकाश्रयणादिण् न। वृजीत्यस्य सिद्धे सति सायणाचार्य्येण ओव्रश्चू इत्यस्य व्यत्ययं मत्त्वा प्रमादादेवोक्तमिति (देवाः) देवयन्ति प्रकाशयन्ति विद्यास्तत्सम्बोधने॥१३॥
भावार्थभाषाः - अत्र मनुष्यैर्निरभिमानत्वं प्राप्यान्नादिभिः सर्वे सत्कर्त्तव्या इतीश्वर उपदिशति यावत्स्वसामर्थ्यं तावद्विदुषां सङ्गसत्कारौ नित्यं कर्त्तव्यौ नैव कदाचित्तेषां निन्दा कर्त्तव्येति॥१३॥पूर्वेणाग्न्यर्थप्रतिपादनस्य बोद्धारो विद्वांस एव भवन्तीत्यस्मिन् सूक्ते प्रतिपादनात् षड्विंशसूक्तार्थेन सहास्य सप्तविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। पूर्वेणाग्न्यर्थप्रतिपादनस्य बोद्धारो विद्वांस एव भवन्तीत्यस्मिन् सूक्ते प्रतिपादनात् षड्विंशसूक्तार्थेन सहास्य सप्तविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्।
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात ईश्वराचा हा उपदेश आहे की माणसांनी अभिमानाचा त्याग करून अन्न इत्यादींनी सर्व उत्तम लोकांचा सत्कार करावा. अर्थात धन इत्यादींनी आपले सामर्थ्य असेल त्याप्रमाणे विद्वानांचा सत्कार व संग करून विद्या प्राप्त करावी. त्यांची कधी निंदा करू नये. ॥ १३ ॥