पूर्व्य॑ होतर॒स्य नो॒ मन्द॑स्व स॒ख्यस्य॑ च। इ॒मा उ॒ षु श्रु॑धी॒ गिरः॑॥
pūrvya hotar asya no mandasva sakhyasya ca | imā u ṣu śrudhī giraḥ ||
पूर्व्य॑। हो॒तः॒। अ॒स्य। नः॒। मन्द॑स्व। स॒ख्यस्य॑। च॒। इ॒माः। ऊँ॒ इति॑। सु। श्रु॒धी॒। गिरः॑॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह कैसे वर्त्ते, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः स कथं वर्त्तेत इत्युपदिश्यते॥
हे पूर्व्य होतर्यजमान वा त्वं नोऽस्माकमस्य सख्यस्य मन्दस्व कामयस्व, उ इति वितर्के नोऽस्माकमिमा वेदविद्यासंस्कृता गिरः सुश्रुधि सुष्ठु शृणु श्रावय वा॥५॥