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पूर्व्य॑ होतर॒स्य नो॒ मन्द॑स्व स॒ख्यस्य॑ च। इ॒मा उ॒ षु श्रु॑धी॒ गिरः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pūrvya hotar asya no mandasva sakhyasya ca | imā u ṣu śrudhī giraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पूर्व्य॑। हो॒तः॒। अ॒स्य। नः॒। मन्द॑स्व। स॒ख्यस्य॑। च॒। इ॒माः। ऊँ॒ इति॑। सु। श्रु॒धी॒। गिरः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:26» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसे वर्त्ते, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पूर्व्य) पूर्व विद्वानों ने किये हुए मित्र (होतः) यज्ञ करने वा करानेवाले विद्वन् ! तू (नः) हमारे (अस्य) इस (सख्यस्य) मित्रकर्म की (मन्दस्व) इच्छा कर (उ) निश्चय है कि हम लोगों को (इमाः) ये जो प्रत्यक्ष (गिरः) वेदविद्या से संस्कार की हुई वाणी हैं, उनको (सुश्रुधि) अच्छे प्रकार सुन और सुनाया कर॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि सब मनुष्यों में मित्रता रखकर उत्तम शिक्षा और विद्या को पढ़ सुन और विचार के विद्वान् होवें॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कथं वर्त्तेत इत्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे पूर्व्य होतर्यजमान वा त्वं नोऽस्माकमस्य सख्यस्य मन्दस्व कामयस्व, उ इति वितर्के नोऽस्माकमिमा वेदविद्यासंस्कृता गिरः सुश्रुधि सुष्ठु शृणु श्रावय वा॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पूर्व्य) पूर्वैर्विद्वद्भिः कृतो मित्रः। अत्र पूर्वैः कृतमिनियौ च। (अष्टा०४.४.१३३) अनेन पूर्वशब्दाद्यः प्रत्ययः (होतः) यज्ञसम्पादक (अस्य) वक्ष्यमाणस्य (नः) अस्माकम् (मन्दस्व) मोदस्व (सख्यस्य) सखीनां कर्मणः (च) पुत्रादीनां समुच्चये (इमाः) प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानाः (उ) वितर्के (सु) शोभनार्थे (श्रुधि) शृणु श्रावय वा। अत्रैकपक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थो बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक् श्रुशृणुपॄकृवृभ्यः इति हेर्ध्यादेशश्च। (गिरः) वेदविद्यासंस्कृता वाचः॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सर्वेषु मनुष्येषु मैत्रीं कृत्वा सुशिक्षाविद्ये श्रुत्वा विद्वद्भिर्भवितव्यम्॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सर्व माणसांशी मैत्री करावी. सुशिक्षण घेऊन विद्या, वाचन व श्रवण करून संपादन करावे आणि विद्वान बनावे. ॥ ५ ॥