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नि नो॒ होता॒ वरे॑ण्यः॒ सदा॑ यविष्ठ॒ मन्म॑भिः। अग्ने॑ दि॒वित्म॑ता॒ वचः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ni no hotā vareṇyaḥ sadā yaviṣṭha manmabhiḥ | agne divitmatā vacaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नि। नः॒। होता॑। वरे॑ण्यः। सदा॑। य॒वि॒ष्ठ॒। मन्म॑ऽभिः। अग्ने॑। दि॒वित्म॑ता। वचः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:26» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:20» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यविष्ठ) अत्यन्त बलवाले (अग्ने) यजमान ! जो (मन्मभिः) जिनसे पदार्थ जाने जाते हैं, उन पुरुषार्थों के साथ वर्त्तमान (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य (होता) सुख देनेवाला (नः) हम लोगों के (दिवित्मता) जिनसे अत्यन्त प्रकाश होता है, उससे प्रसिद्ध (वचः) वाणी को (यज) सिद्ध करता है, उसी का (सदा) सब काल में संग करना चाहिये॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (यज) इस पद की अनुवृत्ति आती है। मनुष्यों को योग्य है कि सज्जन मनुष्यों के सङ्ग से सकल कामनाओं की सिद्धि करें। इसके विना कोई भी मनुष्य सुखी रहने को समर्थ नहीं हो सकता॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे यविष्ठाग्ने यजमान ! यो मन्मभिः सह वर्त्तमानो वरेण्यो होता नोऽस्माकं दिवित्मता वचः सङ्गमयति स त्वया सदा सङ्गन्तव्यः॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नि) नितराम् (नः) अस्माकम् (होता) सुखदाता (वरेण्यः) वरितुमर्हः। वृञ एण्यः। (उणा०३.२६) अनेनैण्यप्रत्ययः। (सदा) सर्वस्मिन् काले (यविष्ठ) अतिशयेन बलवान् यजमान (मन्मभिः) मन्यन्ते जानन्ति जना यैः पुरुषार्थैस्तैः। अत्र कृतो बहुलम् इति वार्त्तिकेन। अन्यभ्योऽपि दृश्यन्ते। (अष्टा०३.२.७५) अनेन करणे मनिन् प्रत्ययः। (अग्ने) विज्ञानादिप्रसिद्धस्वरूप ! (दिवित्मता) दिवं प्रकाशमिन्धते यैः प्रशस्तैः स्वगुणैस्तद्वता। अत्र दिव्शब्दोपपदादिन्धधातोः कृतो बहुलम् इति करणकारके (अन्यभ्योऽपि दृश्यन्ते) अनेन सूत्रेण क्विप्। ततः प्रशंसायां मतुप्। (वचः) उच्यते यत् तत्॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् (यज) इत्यस्याऽनुवृत्तिः। मनुष्यैः सज्जनजनसाहित्येन सकलकामनासिद्धिः कार्य्या। नैतेन विना कश्चित्सुखी भवितुमर्हतीति॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात पूर्व मंत्राच्या (यज) या पदाची अनुवृत्ती झालेली आहे. माणसांनी सज्जन माणसांच्या संगतीने संपूर्ण कामनांना सिद्ध करावे. त्याशिवाय कोणीही माणूस सुख संपादन करण्यास समर्थ बनू शकत नाही. ॥ २ ॥