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विश्वे॑भिरग्ने अ॒ग्निभि॑रि॒मं य॒ज्ञमि॒दं वचः॑। चनो॑ धाः सहसो यहो॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśvebhir agne agnibhir imaṁ yajñam idaṁ vacaḥ | cano dhāḥ sahaso yaho ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्वे॑भिः। अ॒ग्ने॒। अ॒ग्निऽभिः॑। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। इ॒दम्। वचः॑। चनः॑। धाः॒। स॒ह॒स॒। य॒हो॒ इति॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:26» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:21» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यहो) शिल्पकर्म में चतुर के अपत्य कार्य्यरूप अग्नि के उत्पन्न करनेवाले (अग्ने) विद्वन् ! जैसे आप सब सुखों के लिये (सहसः) अपने बल स्वरूप से (विश्वेभिः) सब (अग्निभिः) विद्युत् सूर्य्य और प्रसिद्ध कार्य्यरूप अग्नियों से (इमम्) इस प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (यज्ञम्) संसार के व्यवहाररूप यज्ञ और (इदम्) हम लोगों ने कहा हुआ (वचः) विद्यायुक्त प्रशंसा का वाक्य (चनः) और खाने स्वाद लेने चाटने और चूसने योग्य पदार्थों को (धाः) धारण कर चुका हो, वैसे तू भी सदा धारण कर॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि अपने सन्तानों को निम्नलिखित ज्ञानकार्य्य में युक्त करें। जो कारणरूप नित्य अग्नि है, उससे ईश्वर की रचना में बिजुली आदि कार्य्यरूप पदार्थ सिद्ध होते हैं, फिर उनसे जो सब जीवों के अन्न को पचानेवाले अग्नि के समान अनेक पदार्थ उत्पन्न होते हैं, उन सब अग्नियों को कारण रूप ही अग्नि धारण करता है, जितने अग्नि के कार्य हैं, वे वायु के निमित्त ही प्रसिद्ध होते हैं, उन सबको पदार्थ धारण करते हैं, अग्नि और वायु के विना कभी किसी पदार्थ का धारण नहीं हो सकता है इत्यादि॥१०॥पहिले सूक्त में वरुण के अर्थ के अनुषङ्गी अर्थात् सहायक अग्नि शब्द के इस सूक्त में प्रतिपादन करने से पिछले सूक्त के अर्थ के साथ इस छब्बीसवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये॥यह पहिले अष्टक में दूसरे अध्याय में इक्कीसवाँ वर्ग तथा पहिले मण्डल में छठे अनुवाक में छब्बीसवाँ सूक्त समाप्त हुआ॥२६॥पहिले सूक्त में वरुण के अर्थ के अनुषङ्गी अर्थात् सहायक अग्नि शब्द के इस सूक्त में प्रतिपादन करने से पिछले सूक्त के अर्थ के साथ इस छब्बीसवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये॥यह पहिले अष्टक में दूसरे अध्याय में इक्कीसवाँ वर्ग तथा पहिले मण्डल में छठे अनुवाक में छब्बीसवाँ सूक्त समाप्त हुआ॥२६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे अग्ने ! यहो त्वं यथा दयालुर्विद्वान् सर्वसुखार्थं सहसो बलाद् विष्वेभिरग्निभिरिमं यज्ञमिदं वचश्चनश्च धा हितवांस्तथा त्वमपि सततं धेहि॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वेभिः) सर्वैः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐसादेशाभावः। (अग्ने) विद्यासुशिक्षायुक्तविद्वन् (अग्निभिः) विद्युत्सूर्यप्रसिद्धैः कार्यरूपैस्त्रिभिः (इमम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षम् (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यम् (इदम्) अस्माभिः प्रयुक्तम् (वचः) विद्यायुक्तं स्तुतिसम्पादकं वचनम् (चनः) भक्ष्यभोज्यलेह्यचूष्याख्यमन्नम्। अत्र चायतेरन्ने ह्रस्वश्च। (उणा०४.२०७) अनेनासुन् प्रत्ययो नुडागमश्च। (धाः) हितवान्। अत्राडभावश्च। (सहसः) सहते सहो वायुस्तस्य बलस्वरूपस्य (यहो) क्रिया-कौशलयुक्तस्यापत्यं तत्सम्बुद्धौ। यहुरित्यपत्यनामसु पठितम्। (निघं०२.२)॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरेवं स्वसन्तानानि नित्यं योज्यानि यः कारणरूपोऽग्निर्नित्योऽस्ति तस्मादीश्वररचनया विद्युदादिरूपाणि कार्य्याणि जायन्ते पुनस्तेभ्यो जाठरादिरूपाण्यनेकानि च तान् सर्वानग्नीन् कारणरूप एव धरति, यावन्त्यग्निकार्य्याणि सन्ति तावन्ति वायुनिमित्तेनैव जायन्ते, सर्वं जगत् तत्रस्थानि वस्तूनि च धरन्ति नैवाग्निवायुभ्यां विना कदाचित्कस्यापि वस्तुनो धारणं सम्भवतीति॥१०॥पूर्वसूक्तोक्तेन वरुणार्थेनात्रोक्तस्याग्नेरनुषङ्गित्वात् पूर्वसूक्तार्थेनास्य षड्विंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥पूर्वसूक्तोक्तेन वरुणार्थेनात्रोक्तस्याग्नेरनुषङ्गित्वात् पूर्वसूक्तार्थेनास्य षड्विंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी आपल्या संतानांना निम्नलिखित ज्ञानकार्यात युक्त करावे. जो कारणरूपी नित्य अग्नी आहे, त्यापासून ईश्वरी रचनेमध्ये विद्युत इत्यादी पदार्थ तयार होतात पुन्हा त्यापासून सर्व जीवांच्या अन्नाला पचविणाऱ्या अग्नीसारखे पदार्थ उत्पन्न होतात. त्या सर्व अग्नींना कारणरूपी अग्नी धारण करतो. जितके अग्नीचे कार्य आहे ते वायूच्या निमित्ताने प्रकट होते. त्या सर्वांना पदार्थ धारण करतात. अग्नी व वायूशिवाय कोणत्याही पदार्थाचे कधीही धारण होऊ शकत नाही. ॥ १० ॥