वि मृ॑ळी॒काय॑ ते॒ मनो॑ र॒थीरश्वं॒ न संदि॑तम्। गी॒र्भिर्व॑रुण सीमहि॥
vi mṛḻīkāya te mano rathīr aśvaṁ na saṁditam | gīrbhir varuṇa sīmahi ||
वि। मृ॒ळी॒काय॑। ते॒। मनः॑। र॒थीः। अश्व॑म्। न। सम्ऽदि॑तम्। गी॒भिः। व॒रु॒ण॒। सी॒म॒हि॒॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर भी उक्त अर्थ ही का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः स एवार्थ उपदिश्यते॥
हे वरुण ! वयं रथीः संदितमश्वं न=इव मृळीकाय ते तव गीर्भिर्मनो विषीमहि॥३॥