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तदिन्नक्तं॒ तद्दिवा॒ मह्य॑माहु॒स्तद॒यं केतो॑ हृ॒द आ वि च॑ष्टे। शुनः॒शेपो॒ यमह्व॑द्गृभी॒तः सो अ॒स्मान्राजा॒ वरु॑णो मुमोक्तु॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tad in naktaṁ tad divā mahyam āhus tad ayaṁ keto hṛda ā vi caṣṭe | śunaḥśepo yam ahvad gṛbhītaḥ so asmān rājā varuṇo mumoktu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। इत्। नक्त॑म्। तत्। दिवा॑। मह्य॑म्। आ॒हुः॒। तत्। अ॒यम्। केतः॑। हृ॒दः। आ। वि। च॒ष्टे॒। शुनः॒शेपः॑। यम्। अह्व॑त्। गृ॒भी॒तः। सः। अ॒स्मान्। राजा॑। वरु॑णः। मु॒मो॒क्तु॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:24» मन्त्र:12 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह वरुण कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - विद्वान् लोग (नक्तम्) रात (दिवा) दिन जिस ज्ञान का (आहुः) उपदेश करते हैं (तत्) उस और जो (मह्यम्) विद्या धन की इच्छा करनेवाले मेरे लिये (हृदः) मन के साथ आत्मा के बीच में (केतः) उत्तम बोध (आविचष्टे) सब प्रकार से सत्य प्रकाशित होता है (तदित्) उसी वेद बोध अर्थात् विज्ञान को मैं मानता कहता और करता हूँ (यम्) जिस को (शुनःशेपः) अत्यन्त ज्ञानवाले विद्याव्यवहार के लिये प्राप्त और परमेश्वर वा सूर्य्य का (अह्वत्) उपदेश करते हैं, जिससे (वरुणः) श्रेष्ठ (राजा) प्रकाशमान परमेश्वर हमारी उपासना को प्राप्त होकर छुड़ावे और उक्त सूर्य्य भी अच्छे प्रकार जाना और क्रिया कुशलता में युक्त किया हुआ बोध (मह्यम्) विद्या धन की इच्छा करनेवाले मुझ को प्राप्त होता है (सः) हम लोगों को योग्य है कि उस ईश्वर की उपासना और सूर्य्य का उपयोग यथावत् किया करें॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब मनुष्यों को इस प्रकार उपदेश करना तथा मानना चाहिये कि विद्वान् वेद और ईश्वर हमारे लिये जिस ज्ञान का उपदेश करते हैं तथा हम जो अपनी शुद्ध बुद्धि से निश्चय करते हैं, वही मुझ को और हे मनुष्य ! तुम सब लोगों को स्वीकार करके पाप अधर्म करने से दूर रक्खा करे॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

अन्वय:

विद्वांसो यन्नक्तं दिवाऽहर्निशं ज्ञानमाहुर्यश्च मह्यं हृदः केत आविचष्टे तत्तमहं मन्ये वदामि करोमि वा। यं शुनःशेपो विद्वानह्वत् येन वरुणो राजाऽस्मान् पापाद्दुःखाच्च मुमोक्तु मोचयति वा सम्यग्विदितः उपयुक्तः सन्नीश्वरः सूर्य्योऽपि तदा दारिद्र्यं नाशयति योऽस्माभिर्गृहीत उपास्य उपकृतश्च॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) वेदबोधसहितं विज्ञानम् (इत्) एव (नक्तम्) रात्रौ (तत्) शास्त्रबोधयुक्तम् (दिवा) दिवसे (मह्यम्) विद्याधनमिच्छवे (आहुः) कथयन्ति (तत्) गुणदोषविवेचकः। अत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेर्लुक्। (अयम्) प्रत्यक्षः (केतः) प्रज्ञाविशेषो बोधः। केत इति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.४) (हृदः) मनसा महात्मनो मध्ये (आ) सर्वतः (वि) विविधार्थे (चष्टे) प्रकाशयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (शुनःशेपः) शुनो विज्ञानवत इव शेपो विद्यास्पर्शो यस्य सः। श्वा शुपायी शवतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः। (निरु०३.१८) शेपः शपतेः स्पृशतिकर्मणः। (निरु०३.२१) (यम्) परमेश्वरं सूर्यं वा (अह्वत्) आह्वयति। अत्र लडर्थे लुङ्। (गृभीतः) गृहीतः। हृग्रहोर्भश्छन्दसि हस्य भत्वम्। अनेनात्रः हस्य भः (सः) पूर्वोक्तो वेदविद्याभ्यासोत्पन्नो बोधः (अस्मान्) पुरुषार्थिनो धार्मिकान् (राजा) प्रकाशमानः (वरुणः) वरः (मुमोक्तु) मोचयति वा। अत्रान्त्यपक्षे लडर्थे लोट् बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुरन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥१२॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैरेवमुपदेष्टव्यं मन्तव्यं च विद्वांसो वेदा ईश्वरश्च मह्यं यं बोधमुपदिशन्ति, य चाहं शुद्धया प्रज्ञया निश्चिनोमि तमेव मया सर्वैर्युष्माभिश्च स्वीकृत्य पापाचरणाद्दूरे स्थातव्यम्॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. सर्व माणसांना या प्रकारे उपदेश करावा व त्यांनी तो मानावा की विद्वान, वेद व ईश्वर आमच्यासाठी ज्या ज्ञानाचा उपदेश करतात व जो आम्ही पवित्र बुद्धीने निश्चय करतो तोच मी व हे माणसांनो, तुम्ही सर्वांनी स्वीकारावा व अधर्मापासून व पापापासून दूर राहावे. ॥ १२ ॥