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तत्त्वा॑ यामि॒ ब्रह्म॑णा॒ वन्द॑मान॒स्तदा शा॑स्ते॒ यज॑मानो ह॒विर्भिः॑। अहे॑ळमानो वरुणे॒ह बो॒ध्युरु॑शंस॒ मा न॒ आयुः॒ प्र मो॑षीः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tat tvā yāmi brahmaṇā vandamānas tad ā śāste yajamāno havirbhiḥ | aheḻamāno varuṇeha bodhy uruśaṁsa mā na āyuḥ pra moṣīḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। त्वा॒। या॒मि॒। ब्रह्म॑णा। वन्द॑मानः। तत्। आ। शा॒स्ते॒। यज॑मानः। ह॒विःऽभिः॑। अहे॑ळमानः। व॒रु॒ण॒। इ॒ह। बो॒धि॒। उरु॑ऽशंस। मा। नः॒। आयुः॑। प्र। मो॒षीः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:24» मन्त्र:11 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:15» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह वरुण कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (उरुशंस) सर्वथा प्रशंसनीय (वरुण) जगदीश्वर ! जिस (त्वा) आपका आश्रय लेके (यजमानः) उक्त तीन प्रकार यज्ञ करनेवाला विद्वान् (हविर्भिः) होम आदि साधनों से (तत्) अत्यन्त सुख की (आशास्ते) आशा करता है, उन आप को (ब्रह्मणा) वेद से स्मरण और अभिवादन तथा (अहेळमानः) आपका अनादर अर्थात् अपमान नहीं करता हुआ मैं (यामि) आपको प्राप्त होता हूँ, आप कृपा करके मुझे (इह) इस संसार में (बोधि) बोधयुक्त कीजिये और (नः) हमारी (आयुः) उमर (मा) (प्रमोषीः) मत व्यर्थ खोइये अर्थात् अति शीघ्र मेरे आत्मा को प्रकाशित कीजिये॥१॥११॥(तत्) सुख की इच्छा करता हुआ (यजमानः) तीन प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला जिस (उरुशंस) अत्यन्त प्रशंसनीय (वरुण) सूर्य को (आशास्ते) चाहता है (त्वा) उस सूर्य्य को (ब्रह्मणा) वेदोक्त क्रियाकुशलता से (वन्दमानः) स्मरण करता हुआ (अहेळमानः) किन्तु उसके गुणों को न भूलता और (इह) इस संसार में (तत्) उक्त सुख की इच्छा करता हुआ मैं (यामि) प्राप्त होता हूँ कि जिससे यह (उरुशंस) अत्यन्त प्रशंसनीय सूर्य्य हमको (बोधि) विदित होकर (नः) हम लोगों की (आयुः) उमर (मा) (प्रमोषीः) न नष्ट करे अर्थात् अच्छे प्रकार बढ़ावे॥२॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को वेदोक्त रीति से परमेश्वर और सूर्य को जानकर सुखों को प्राप्त होना चाहिये और किसी मनुष्य को परमेश्वर वा सूर्य विद्या का अनादर न करना चाहिये, सर्वदा ईश्वर की आज्ञा का पालन और उसके रचे हुए जो कि सूर्यादिक पदार्थ हैं, उनके गुणों को जानकर उनसे उपकार लेके अपनी उमर निरन्तर बढ़ानी चाहिये॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स वरुणः कीदृश इत्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे उरुशंस वरुण ! यं त्वामाश्रित्य यजमानो हविर्भिस्तदाशास्ते, तं त्वा ब्रह्मणा वन्दमानोऽहेळमानोऽहं यामि कृपया त्वं मह्यमिह बोधि विदितो भव, नोऽस्माकमायुर्मा प्रमोषीरित्येकः॥१॥११॥तत्सुखमिच्छन् यजमानो यमुरुशंसं वरुणमाशास्ते, यं ब्रह्मणा वन्दमानोऽहेडमान- स्तत्सुखमिच्छन्नहं यामि प्राप्नोमि, स उरुशंसो वरुणोऽस्माभिर्बोधि विदितो भवतु, यतोऽयं नोऽस्माकमायुर्मा प्रमोषीर्मा विनाशयेदिति द्वितीयः॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) सुखम् (त्वा) त्वां वरुणं प्राप्तुं तं सूर्यं वा (यामि) प्राप्नोमि (ब्रह्मणा) वेदेन (वन्दमानः) स्तुवन्नभिगायन् (तत्) सुखम् (आ) अभितः (शास्ते) इच्छति (यजमानः) त्रिविधस्य यज्ञस्यानुष्ठाता (हविर्भिः) हवनादिभिः साधनैः (अहेळमानः) अनादरमकुर्वाणः (वरुण) जगदीश्वर ! वायुर्वा। (इह) अस्मिन् संसारे (बोधि) विदितो भव विदितगुणो वा भवति। अत्र लोडर्थे लडर्थे च लुङडभावश्च। (उरुशंस) बहुभिः शस्यते यस्तत्सम्बुद्धौ पक्षे सूर्यो वा (मा) निषेधार्थे (नः) अस्माकम् (आयुः) वयः (प्र) प्रकृष्टार्थे (मोषीः) नाशय विनाशयेद्वा। अत्र लोडर्थे लिङर्थे च लुङडभावोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्वेदोक्तरीत्या परमेश्वरं सूर्यं च विज्ञाय सुखं प्राप्तव्यम्। नैव केनचित् परमेश्वरोऽनादरणीयः सूर्यविद्या च सर्वदेश्वराज्ञापालनं तत्सृष्टपदार्थानां गुणान् विदित्वोपस्कृत्य चायुषो वृद्धिर्नित्यं कर्तव्येति॥२॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी वेदोक्त रीतीने परमेश्वर व सूर्याला जाणून सुख प्राप्त करून घ्यावे. कोणत्याही माणसाने परमेश्वर व सूर्यविद्येचा अनादर करू नये. सदैव ईश्वराच्या आज्ञेचे पालन करून त्याने निर्माण केलेल्या सूर्य इत्यादी पदार्थांना त्यांच्या गुणांसह जाणून त्यांचा उपयोग करून घ्यावा व आपले आयुष्य निरंतर वाढवावे. ॥ ११ ॥