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मि॒त्रं व॒यं ह॑वामहे॒ वरु॑णं॒ सोम॑पीतये। ज॒ज्ञा॒ना पू॒तद॑क्षसा॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mitraṁ vayaṁ havāmahe varuṇaṁ somapītaye | jajñānā pūtadakṣasā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मि॒त्रम्। व॒यम्। ह॒वा॒म॒हे॒। वरु॑णम्। सोम॑ऽपीतये। ज॒ज्ञा॒ना। पू॒तऽद॑क्षसा॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:23» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:8» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

इस विद्या के प्राप्त करानेवाले प्राण और उदान हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्) हम पुरुषार्थी लोग जो (सोमपीतये) जिसमें सोम अर्थात् अपने अनुकूल सुखों को देनेवाले रसयुक्त पदार्थों का पान होता है, उस व्यवहार के लिये (पूतदक्षसा) पवित्र बल करनेवाले (जज्ञाना) विज्ञान के हेतु (मित्रम्) जीवन के निमित्त बाहर वा भीतर रहनेवाले प्राण और (वरुणम्) जो श्वासरूप ऊपर को आता है, उस बल को करनेवाले उदान वायु को (हवामहे) ग्रहण करते हैं, उनको तुम लोगों को भी क्यों न जानना चाहिये॥४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को प्राण और उदान वायु के विना सुखों का भोग और बल का सम्भव कभी नहीं हो सकता, इस हेतु से इनके सेवन की विद्या को ठीक-ठीक जानना चाहिये॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

एतद्विद्याप्रापकौ प्राणोदानौ स्त इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

वयं यौ सोमपीतये पूतदक्षसौ जज्ञानौ मित्रं वरुणं च हवामहे, तौ युष्माभिरपि कुतो न वेदितव्यौ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रम्) बाह्याभ्यन्तरस्थं जीवनहेतुं प्राणम् (वयम्) पुरुषार्थिनो मनुष्याः (हवामहे) गृह्णीमः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुर्न। (वरुणम्) ऊर्ध्वगमनबलहेतुमुदानं वायुम् (सोमपीतये) सोमानामनुकूलानां सुखादिरसयुक्तानां पदार्थानां पीतिः पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै। अत्र सहसुपेति समासः (जज्ञाना) अवबोधहेतू (पूतदक्षसा) पूतं पवित्रं दक्षोबलं याभ्यां तौ। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः॥४॥
भावार्थभाषाः - नैव मनुष्याणां प्राणोदानाभ्यां विना कदापि सुखभोगो बलं च सम्भवति, तस्मादेतयोः सेवनविद्या यथावद्वेद्यास्ति॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांना प्राण व उदान वायूखेरीज सुखाचा भोग व बल मिळू शकत नाही. त्यामुळे त्यांच्या सेवनाची विद्या योग्यप्रकारे जाणावी. ॥ ४ ॥