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आपः॑ पृणी॒त भे॑ष॒जं वरू॑थं त॒न्वे॒३॒॑ मम॑। ज्योक् च॒ सूर्यं॑ दृ॒शे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āpaḥ pṛṇīta bheṣajaṁ varūthaṁ tanve mama | jyok ca sūryaṁ dṛśe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आपः॑। पृ॒णी॒त। भे॒ष॒जम्। वरू॑थम्। त॒न्वे॑। मम॑। ज्योक्। च॒। सूर्य॑म्। दृ॒शे॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:23» मन्त्र:21 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:12» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:21


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे जल कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि सब पदार्थों को व्याप्त होनेवाले प्राण (सूर्य्यम्) सूर्यलोक के (दृशे) दिखलाने वा (ज्योक्) बहुत काल जिवाने के लिये (मम) मेरे (तन्वे) शरीर के लिये (वरूथम्) श्रेष्ठ (भेषजम्) रोगनाश करनेवाले व्यवहार को (पृणीत) परिपूर्णता से प्रकट कर देते हैं, उनका सेवन युक्ति ही से करना चाहिये॥२१॥
भावार्थभाषाः - प्राणों के विना कोई प्राणी वा वृक्ष आदि पदार्थ बहुत काल शरीर धारण करने को समर्थ नहीं हो सकते, इससे क्षुधा और प्यास आदि रोगों के निवारण के लिये परम अर्थात् उत्तम से उत्तम औषधों को सेवने से योगयुक्ति से प्राणों का सेवन ही परम उत्तम है, ऐसा जानना चाहिये।
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

रोगनिवारण व दीर्घजीवन

पदार्थान्वयभाषाः - १. (आपः) - हे जलो ! (मम तन्वे) - मेरे शरीर के लिए (वरूथम्) - रोगों के निवारक (भेषजम्) - औषध को (पृणीत) - [पूरयत] पूरित करो , अर्थात् जलों के समुचित प्रयोग से हम रोगमात्र को शरीर पर आक्रमण करने से रोक सकते हैं ।  २. इस प्रकार रोगों को दूर करके ये जल हमारे (ज्योक्) - दीर्घकाल तक (सूर्यम् दशे) - सूर्य के दर्शन के लिए होते हैं । जलों का 'उषः पान' [प्रातः काल उठने पर दाँत व जीभ साफ करने के बाद जल पीना] , धीमे - धीमे पीना , भोजन के प्रारम्भ व अन्त में न पीकर बीच - बीच में थोड़ा - थोड़ा बार - बार पीना , सामान्यतः गर्म जल का पीने के लिए प्रयोग करना , स्नान के लिए ठण्डे जल का spunging के रूप में प्रयोग करना' - इन नियमों का पालन करने पर जल रोगों को नहीं आने देते । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - जल रोगनिवारक औषध को प्राप्त कराते हैं और हमारे दीर्घजीवन के लिए होते हैं । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ताः कीदृशा इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

मनुष्यैर्या आपः प्राणाः सूर्य्यं दृशे द्रष्टुं ज्योक् चिरं जीवनाय मम तन्वे वरूथं भेषजं वृणीत प्रपूरयन्ति ता यथावदुपयोजनीयाः॥२१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आपः) आप्नुवन्ति व्याप्नुवन्ति सर्वान् पदार्थास्ते प्राणाः (पृणीत) पूरयन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (भेषजम्) रोगनाशकव्यवहारम् (वरूथम्) वरं श्रेष्ठम्। अत्र जॄवृभ्यामूथन्। (उणा०२.६) अनेन ‘वृञ्’ धातोरूथन्प्रत्ययः। (तन्वे) शरीराय (मम) जीवस्य (ज्योक्) चिरार्थे (च) समुच्चये (सूर्य्यम्) सवितृलोकम् (दृशे) द्रष्टुम्। दृशे विख्ये च। (अष्टा०३.४.११) अनेनायं निपातितः॥२१॥
भावार्थभाषाः - नैव प्राणैर्विना कश्चित्प्राणी वृक्षादयश्च शरीरं धारयितुं शक्नुवन्ति, तस्मात् क्षुत्तृषादिरोगनिवारणार्थं परममौषधं युक्त्या प्राणसेवनमेवास्तीति बोध्यम्॥११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Waters create the best medicine for my body for a long life time for me to have a sight of the sun, universal light, everyday.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The same subject of अप: of (Apas) is continued.

अन्वय:

Men should properly use the Pranas (Vital airs or principles of life) that fill all disease— 'dispelling medicaments (properties ) to keep our body safe from harm, so that we may long see the sun.

पदार्थान्वयभाषाः - (आपः ) आप्नुवन्ति व्याप्नुवन्ति सर्वान् पदार्थान् ते प्राणाः ॥ = Pranas or principles of life that pervade all. (पृणीत) पूरयन्ति । अत्र व्यत्ययो लड़र्थे लोट् अंतर्गतो व्यर्थश्च = Fill up. (भेषजम्) रोगनाशकव्यवहारम् = Diseases destroying function. (वरूथम् ) वरं श्रेष्ठम् । अत्र जृवृभ्यामूथन् (उणादि० २.६) अनेन वृञ्-वरणे इति धातोः ऊथन् प्रत्ययः । = Good. (दृशे ) द्रष्टुम् दृशे विख्ये च (अष्टा० ३.४.११) अनेनायं निपातितः = To see.
भावार्थभाषाः - Without the Pranas, it is not possible for any living being or even trees etc. to maintain their existence. There fore the best medicine or healing balm for the removal of hunger, thirst and all diseases is to use the Prana properly and methodically.
टिप्पणी: Here Rishi Dayananda has interpreted आप: as प्राणा: for which he has given the derivation. आप्नुवन्ति व्याप्नुवन्ति सर्वान् पदार्थान् ते though he has not cited the authorities which are clearly available. In the Taittireeya 3.2.5.2 and Tandya Maha Brahmana 9.9.4 it is stated प्राणा वा आपः (तैत्ति ० संहिता ३.२.५.२ तारड्य ब्राह्मणे १.१.४ । In the Shatapath Brahmana 3.8.2-4 it is stated आपो वै प्राणाः ।। (शत० ३.८.२.४ ) In the Jaimineeya Upanishad 3.10.9 it is stated— प्राणो ह्यापः (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे ३.१०.९) So Rishi Dayananda's interpretation is substantiated by the above and other authorities from the ancient literature.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्राणाखेरीज कोणताही प्राणी व वृक्ष इत्यादी पदार्थ फार काळ शरीर धारण करण्यास समर्थ बनू शकत नाहीत. त्यासाठी क्षुधा व तृष्णा इत्यादी रोगांच्या निवारणासाठी परम अर्थात उत्तम औषधाच्या सेवनाने योगाद्वारे प्राणांचे सेवन करणे अत्यंत उत्तम आहे, असे जाणले पाहिजे. ॥ २१ ॥