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तेन॑ स॒त्येन॑ जागृत॒मधि॑ प्रचे॒तुने॑ प॒दे। इन्द्रा॑ग्नी॒ शर्म॑ यच्छतम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tena satyena jāgṛtam adhi pracetune pade | indrāgnī śarma yacchatam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तेन॑। स॒त्येन॑। जा॒गृ॒त॒म्। अधि॑। प्र॒ऽचे॒तुने॑। प॒दे। इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑। शर्म॑। य॒च्छ॒त॒म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:21» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:3» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जो (इन्द्राग्नी) प्राण और बिजुली हैं वे (तेन) उस (सत्येन) अविनाशी गुणों के समूह से (प्रचेतुने) जिसमें आनन्द से चित्त प्रफुल्लित होता है (पदे) उस सुखप्रापक व्यवहार में (अधिजागृतम्) प्रसिद्ध गुणवाले होते और (शर्म) उत्तम सुख को भी (यच्छतम्) देते हैं, उनको क्यों उपयुक्त न करना चाहिये॥६॥
भावार्थभाषाः - जो नित्य पदार्थ हैं, उनके गुण भी नित्य होते हैं, जो शरीर में वा बाहर रहनेवाले प्राणवायु तथा बिजुली हैं, वे अच्छी प्रकार सेवन किये हुए चेतनता करानेवाले होकर सुख देनेवाले होते हैं॥६॥बीसवें सूक्त में कहे हुए बुद्धिमानों की पदार्थविद्या की सिद्धि के वायु और अग्नि मुख्य हेतु होते हैं, इस अभिप्राय के जानने से पूर्वोक्त बीसवें सूक्त के अर्थ के साथ इस इक्कीसवें सूक्त के अर्थ का मेल जानना चाहिये। यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने विरुद्ध अर्थ से वर्णन किया है॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

अन्वय:

याविन्द्राग्नी तेन सत्येन प्रचेतुने पदेऽधिजागृतं तौ शर्म यच्छतं दत्तः॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तेन) गुणसमूहाधारेण (सत्येन) अविनाशिस्वभावेन कारणेन (जागृतम्) प्रसिद्धगुणौ स्तः। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च (अधि) उपरिभावे (प्रचेतुने) प्रचेतयन्त्यानन्देन यस्मिँस्तस्मिन्। (पदे) प्राप्तुं योग्ये (इन्द्राग्नी) प्राणविद्युतौ (शर्म) सुखम् (यच्छतम्) दत्तः। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥६॥
भावार्थभाषाः - ये नित्याः पदार्थाः सन्ति तेषां गुणा अपि नित्या भवितुमर्हन्ति, ये शरीरस्था बहिस्थाः प्राणा विद्युच्च सम्यक् सेविताश्चेतनत्वहेतवो भूत्वा सुखप्रदा भवन्ति, ते कथं न सम्प्रयोक्तव्यौ॥६॥ विंशसूक्तोक्ता मेधाविनः पदार्थविद्यासिद्धेरिन्द्राग्नी मुख्यौ हेतू भवत इति जानन्त्यनेन पूर्वसूक्तार्थेन सहैकविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनादिभिश्च विरुद्धार्थं व्याख्यातम्॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे पदार्थ नित्य असतात त्यांचे गुणही नित्य असतात. शरीरात किंवा बाहेर राहणारे प्राणवायू व विद्युत चांगल्या प्रकारे सेवन केलेले, चेतनतेचे हेतू असतात. ते सुखी करणारे असतात. तेव्हा त्यांना उपयुक्त का म्हणू नये? ॥ ६ ॥
टिप्पणी: याही सूक्तात सायणाचार्य इत्यादी व युरोपवासी विल्सन इत्यादींनी विरुद्ध अर्थाचे वर्णन केलेले आहे.