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क॒वी नो॑ मि॒त्रावरु॑णा तुविजा॒ता उ॑रु॒क्षया॑। दक्षं॑ दधाते अ॒पस॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kavī no mitrāvaruṇā tuvijātā urukṣayā | dakṣaṁ dadhāte apasam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क॒वी इति॑। नः॒। मि॒त्रावरु॑णा। तु॒वि॒ऽजा॒तौ। उ॒रु॒ऽक्षया॑। दक्ष॑म्। द॒धा॒ते॒ इति॑। अ॒पस॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:2» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:4» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:1» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

वे हम लोगों के कौन-कौन पदार्थों के धारण कनरेवाले हैं, इस बात का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (तुविजातौ) जो बहुत कारणों से उत्पन्न और बहुतों में प्रसिद्ध (उरुक्षया) संसार के बहुत से पदार्थों में रहनेवाले (कवी) दर्शनादि व्यवहार के हेतु (मित्रावरुणा) पूर्वोक्त मित्र और वरुण हैं, वे (नः) हमारे (दक्षम्) बल तथा सुख वा दुःखयुक्त कर्मों को (दधाते) धारण करते हैं॥९॥
भावार्थभाषाः - जो ब्रह्माण्ड में रहनेवाले बल और कर्म के निमित्त पूर्वोक्त मित्र और वरुण हैं, उनसे क्रिया और विद्याओं की पुष्टि तथा धारणा होती है॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

इमावस्माकं किं किं धारयत इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

इमौ तुविजातावुरुक्षयौ कवी मित्रावरुणौ नोऽस्माकं दक्षमपसं च दधाते धरतः॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कवी) क्रान्तदर्शनौ सर्वव्यवहारदर्शनहेतू। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा। (निरु०१२.१३) एतन्निरुक्ताभिप्रायेण कविशब्देन सुखसाधकौ मित्रावरुणौ गृह्येते। (नः) अस्माकम् (मित्रावरुणौ) पूर्वोक्तौ (तुविजातौ) बहुभ्यः कारणेभ्य उत्पन्नौ बहुषु वा प्रसिद्धौ। तुवीति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (उरुक्षया) बहुषु जगत्पदार्थेषु क्षयो निवासो ययोस्तौ। अत्र सुपां सुलुगित्याकारः। उर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) ‘क्षि निवासगत्योः’ अस्य धातोरधिकरणार्थः क्षयशब्दः। (दक्षम्) बलम् (दधाते) धरतः (अपसम्) कर्म। अप इति कर्मनामसु पठितम्। (निरु०२.१) व्यत्ययो बहुलमिति लिङ्गव्यत्ययः। इदमपि सायणाचार्य्येण न बुद्धम्॥९॥
भावार्थभाषाः - ब्रह्माण्डस्थाभ्यां बलकर्मनिमित्ताभ्यामेताभ्यां सर्वेषां पदार्थानां सर्वचेष्टाविद्ययोः पुष्टिधारणे भवत इति॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ब्रह्मांडात असणारे बल व कर्मानिमित्त पूर्वोक्त जे मित्र व वरुण आहेत, त्यांच्याकडून क्रिया व विद्या यांची पुष्टी व धारणा होते. ॥ ९ ॥
टिप्पणी: या सूक्तार्थाचा सायणाचार्य इत्यादी व विल्सन इत्यादी युरोप देशवासी लोकांनी वेगळाच अर्थ सांगितलेला आहे.