वांछित मन्त्र चुनें

ये शु॒भ्रा घो॒रव॑र्पसः सुक्ष॒त्रासो॑ रि॒शाद॑सः। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ye śubhrā ghoravarpasaḥ sukṣatrāso riśādasaḥ | marudbhir agna ā gahi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ये। शु॒भ्राः। घो॒रऽव॑र्पसः। सु॒ऽक्ष॒त्रासः॑। रि॒शाद॑सः। म॒रुत्ऽभिः॑। अ॒ग्ने॒। आ। ग॒हि॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:19» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:36» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:5


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (घोरपर्वसः) घोर अर्थात् जिनका पदार्थों को छिन्न-भिन्न करनेवाला रूप जो और (रिशादसः) रोगों को नष्ट करनेवाले (सुक्षत्रासः) तथा अन्तरिक्ष में निर्भय राज्य करनेहारे और (शुभ्राः) अपने गुणों से सुशोभित पवन हैं, उनके साथ (अग्ने) भौतिक अग्नि (आगहि) प्रकट होता अर्थात् कार्य्यसिद्धि को देता है॥५॥
भावार्थभाषाः - जो यज्ञ के धूम से शोधे हुए पवन हैं, वे अच्छे राज्य के करानेवाले होकर रोग आदि दोषों का नाश करते हैं और जो अशुद्ध अर्थात् दुर्गन्ध आदि दोषों से भरे हुए हैं, वे सुखों का नाश करते हैं। इससे मनुष्यों को चाहिये कि अग्नि में होम द्वारा वायु की शुद्धि से अनेक प्रकार के सुखों को सिद्ध करें॥५॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

ये घोरवर्पसो रिशादसः सुक्षत्रासः शुभ्रा वायवः सन्ति, तैर्मरुद्भिः सहाग्नेऽग्निरागहि कार्य्याणि प्रापयति॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) वायवः (शुभ्राः) स्वगुणैः शोभमानाः (घोरवर्पसः) घोरं हननशीलं वर्पो रूपं स्वरूपं येषां ते। वर्प इति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (सुक्षत्रासः) शोभनं क्षत्रमन्तरिक्षस्थं राज्यं येषां ते (रिशादसः) रिशा रोगा अदसोऽत्तारो ये ते (मरुद्भिः) प्राप्तिहेतुभिः सह। मरुत इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) अनेनात्र प्राप्त्यर्थो गृह्यते। (अग्ने) भौतिकः (आ) आभिमुख्ये (गहि) प्रापयति॥५॥
भावार्थभाषाः - ये यज्ञेन शोधिता वायवः सुराज्यकारिणो भूत्वा रोगान् घ्नन्ति, ये चाशुद्धास्ते सुखानि नाशयन्ति, तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैरग्निना वायोः शोधनेन सुखानि संसाधनीयानीति॥५॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - यज्ञाच्या धुराने शुद्ध केलेले वायू राज्यातील रोग इत्यादी दोष नष्ट करतात व अशुद्ध अर्थात दुर्गंधाने युक्त वायू सुखाचा नाश करतात. त्यासाठी यज्ञातील अग्नीद्वारे वायू शुद्ध करून माणसांनी अनेक प्रकारचे सुख सिद्ध करावे. ॥ ५ ॥