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त्वं ताँ अ॑ग्न उ॒भया॒न्वि वि॒द्वान्वेषि॑ प्रपि॒त्वे मनु॑षो यजत्र। अ॒भि॒पि॒त्वे मन॑वे॒ शास्यो॑ भूर्मर्मृ॒जेन्य॑ उ॒शिग्भि॒र्नाक्रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ tām̐ agna ubhayān vi vidvān veṣi prapitve manuṣo yajatra | abhipitve manave śāsyo bhūr marmṛjenya uśigbhir nākraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। ताम्। अ॒ग्ने॒। उ॒भया॑न्। वि। वि॒द्वान्। वेषि॑। प्र॒ऽपि॒त्वे। मनु॑षः। य॒ज॒त्र॒। अ॒भि॒ऽपि॒त्वे। मन॑वे। शास्यः॑। भूः॒। म॒र्मृ॒जेन्यः॑। उ॒शिक्ऽभिः। न। अ॒क्रः ॥ १.१८९.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:189» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:11» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यजत्र) सत्कार करने योग्य (अग्ने) दुष्टों को शिक्षा देनेवाले (विद्वान्) विद्वान् जन ! जो (त्वम्) आप (तान्) उन (उभयान्) दोनों प्रकार के कुटिल निन्दक वा हिंसक (मनुषः) मनुष्यों को (प्रपित्वे) उत्तमता से प्राप्त समय में (वि, वेषि) प्राप्त होते वह आप (अभिपित्वे) सब ओर से प्राप्त व्यवहार में (मनवे) विचारशील मनुष्य के लिये (शास्यः) शिक्षा करने योग्य (भूः) हूजिये और (उशिग्भिः) कामना करते हुए जनों से (मर्मृजेन्यः) अत्यन्त शोभा करने योग्य आप (नाक्रः) दुष्टों को उल्लंघते नहीं, छोड़ते नहीं, अर्थात् उनकी दुष्टता को निवारण कर उन्हें शिक्षा देते हैं ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वान् जन जितना हो सके उतना हिंसक क्रूर और निन्दक जनों को अपने बल से सब ओर से मींजमांज उनका बल नष्ट कर सत्य की कामना करनेवालों को हर्ष दिलाते हैं, वे शिक्षा देनेवाले होकर शुद्ध होते हैं ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे यजत्राऽग्ने विद्वान् यस्त्वं तानुभयान् मनुषः प्रपित्वे विवेषि सोऽभिपित्वे मनवे शास्यो भूरुशिग्भिर्मर्मृजेन्यो भवान् नाक्रः ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (तान्) (अग्ने) दुष्टप्रशासकविद्वन् (उभयान्) कुटिलान् निन्दकान् हिंसकान् वा (वि) विद्वान् (वेषि) प्राप्नोषि (प्रपित्वे) प्रकर्षेण प्राप्ते समये (मनुषः) मनुष्यान् (यजत्र) पूजनीय (अभिपित्वा) अभितः प्राप्ते (मनवे) मननशीलाय मनुष्याय (शास्यः) शासितुं योग्यः (भूः) भवेः (मर्मृजेन्यः) अत्यन्तमलंकरणीयः (उशिग्भिः) कामयमानैर्जनैः (न) निषेधे (अक्रः) दुष्टान् क्राम्यति ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्वांसो मनुष्या यावच्छक्यं तावद्धिंसकान् क्रूरान् जुगुप्सकान् स्वबलेनाभिमर्द्य निवर्त्य सत्यं कामयमानान् हर्षयन्ति ते शासितारो भूत्वा शुद्धा जायन्ते ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. विद्वान लोक जेवढे शक्य असेल तेवढे हिंसक, क्रूर, निंदक लोकांचे बल आपल्या बलाने नष्ट करतात व सत्याची कामना करणाऱ्यांना हर्षित करतात. ते शिक्षण देणारे असून, पवित्र असतात. ॥ ७ ॥