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मा नो॑ अ॒ग्नेऽव॑ सृजो अ॒घाया॑वि॒ष्यवे॑ रि॒पवे॑ दु॒च्छुना॑यै। मा द॒त्वते॒ दश॑ते॒ मादते॑ नो॒ मा रीष॑ते सहसाव॒न्परा॑ दाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā no agne va sṛjo aghāyāviṣyave ripave ducchunāyai | mā datvate daśate mādate no mā rīṣate sahasāvan parā dāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। नः॒। अ॒ग्ने॒। अव॑। सृ॒जः॒। अ॒घाय॑। अ॒वि॒ष्यवे॑। रि॒पवे॑। दु॒च्छुना॑यै। मा। द॒त्वते॑। दश॑ते। मा। अ॒दते॑। नः॒। मा। रीष॑ते। स॒ह॒सा॒ऽव॒न्। परा॑। दाः ॥ १.१८९.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:189» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:10» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब शिक्षा देनेवाले के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वान् ! आप (नः) हम लोगों को (अघाय) पापी जन के लिये (अविष्यवे) वा जो धर्म को नहीं व्याप्त उस (रिपवे) शत्रुजन अथवा (दुच्छुनायै) दुष्ट चाल जिसकी उनके लिये (मावसृजः) मत मिलाइये। हे (सहसावन्) बहुत बल वा बहुत सहनशीलतायुक्त विद्वान् (दत्वते) दातोंवाले और (दशते) दाढ़ों से विदीर्ण करनेवाले के (मा) मत तथा (अदते) विना दातोंवाले दुष्ट के लिये (मा) मत और (रिषते) हिंसा करनेवाले के लिये (नः) हम लोगों को (मा, परा, दाः) मत दूर कीजिये अर्थात् मत अलग कर उनको दीजिये ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को विद्वान्, राजा, अध्यापक और उपदेशकों के प्रति ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये कि हम लोगों को दुष्ट स्वभाव और दुष्ट सङ्गवाले को मत पहुँचाओ किन्तु सदैव श्रेष्ठाचार धर्ममार्ग और सत्सङ्गों में संयुक्त करो ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ शासकविषयमाह ।

अन्वय:

हे अग्ने त्वं नोऽघायाविष्यवे रिपवे दुच्छनायै च मावसृजः। हे सहसावन् दत्वते दशते मादते मा रिषते च नो मा परा दाः ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मा) (नः) अस्मान् (अग्ने) विद्वन् (अव) (सृजः) संयोजयेः (अघाय) पापाय (अविष्यवे) धर्ममव्याप्नुवते (रिपवे) शत्रवे (दुच्छुनायै) दुष्टं शुनं गमनं यस्यास्तस्यै। अत्र शुन गतावित्यस्माद् घञर्थे क इति कः। (मा) (दत्वते) दन्तवते (दशते) दंशकाय (मा) (अदते) (नः) अस्मान् (मा) (रिषते) हिंसकाय। अत्राऽन्येषामपीत्याद्यचो दैर्घ्यम्। (सहसावन्) बहु सहो बलं सहनं वा विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ (पराः) (दाः) दूरीकुर्याः ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्विद्वद्राजाऽध्यापकोपदेशकान् प्रत्येवं प्रार्थनीयमस्मान् दुर्व्यसनाय दुष्टसङ्गाय मा प्रेरयत किन्तु सदैव श्रेष्ठाचारधर्ममार्गसत्सङ्गेषु संयोजयतेति ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी विद्वान, राजा, अध्यापक व उपदेशक यांना अशी प्रार्थना केली पाहिजे की आम्हाला दुर्व्यसनी व दुष्ट माणसांच्या संगतीत पाठवू नका तर सदैव श्रेष्ठाचार, धर्ममार्ग, सत्संगात संयुक्त करा. ॥ ५ ॥