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सु॒वृद्रथो॑ वर्तते॒ यन्न॒भि क्षां यत्तिष्ठ॑थ॒: क्रतु॑म॒न्तानु॑ पृ॒क्षे। वपु॑र्वपु॒ष्या स॑चतामि॒यं गीर्दि॒वो दु॑हि॒त्रोषसा॑ सचेथे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

suvṛd ratho vartate yann abhi kṣāṁ yat tiṣṭhathaḥ kratumantānu pṛkṣe | vapur vapuṣyā sacatām iyaṁ gīr divo duhitroṣasā sacethe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒ऽवृत्। रथः॑। व॒र्त॒ते॒। यन्। अ॒भि। क्षाम्। यत्। तिष्ठ॑थः। क्रतु॑ऽमन्ता। अनु॑। पृ॒क्षे। वपुः॑। व॒पु॒ष्या। स॒च॒ता॒म्। इ॒यम्। गीः। दि॒वः। दु॒हि॒त्रा। उ॒षसा॑। स॒चे॒थे॒ इति॑ ॥ १.१८३.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:183» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:29» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (क्रतुमन्ता) बहुत उत्तम बुद्धियुक्त रथों के चलाने और सिद्ध करनेवाले विद्वानो ! तुम (सुवृत्) सुन्दरता से स्वीकार करने (रथः) और रमण करने योग्य रथ (क्षाम्) पृथिवी को (यन्) जाता हुआ (अभि) सब ओर से (वर्त्तते) वर्त्तमान है, (यत्) जिसमें (पृक्षे) दूसरों के सम्बन्ध में तुम लोग (तिष्ठथः) स्थिर होते हो और जो (वपुः) रूप है अर्थात् चित्र सा बन रहा है उस सबसे (वपुष्या) सुन्दर रूप में प्रसिद्ध हुए व्यवहारों का (अनु, सचताम्) अनुकूलता से सम्बन्ध करो और जैसे (इयम्) यह (गीः) सुशिक्षित वाणी और कहनेवाला पुरुष (दिवः) सूर्य को (दुहित्रा) कन्या के समान वर्त्तमान (उषसा) प्रभात वेला से तुम दोनों को (सचेथे) संयुक्त होते हैं वैसे कैसे न तुम भाग्यशाली होते हो ? ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य जिस यान से जाने को चाहें वह सुन्दर पृथिव्यादिकों में शीघ्र चलने योग्य प्रभात वेला के समान प्रकाशमान जैसे वैसे अच्छे विचार से बनावें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे क्रतुमन्ता यानसाधकचालकौ युवां सुवृद्रथः क्षां यन्नभि वर्त्तते यत्पृक्षे युवां तिष्ठथो यद्वपुरस्ति येन वपुष्यानु सचतां यथेयं गीर्वक्ता च दिवो दुहित्रोषसा सह युवां सचेथे तथा कथन्न भाग्यशालिनौ भवथः ? ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सुवृत्) यस्सुवर्त्तुमर्हः (रथः) रन्तुं योग्यः (वर्त्तते) (यन्) गच्छन्। इण् धातोः शतृप्रत्ययो यणादेशश्च। (अभि) अभितः (क्षाम्) पृथिवीम् (यत्) यस्मिन् (तिष्ठथः) (क्रतुमन्ता) बहुप्रज्ञायुक्तौ (अनु) (पृक्षे) सम्पर्के (वपुः) रूपम् (वपुष्या) वपुषि भवानि (सचताम्) (इयम्) (गीः) सुशिक्षिता वाक् (दिवः) सूर्य्यस्य (दुहित्रा) या कन्येव वर्त्तमाना तया (उषसा) प्रभातवेलया (सचेथे) संयुङ्क्थः ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्या येन यानेन गन्तुमिच्छेयुस्तत्सुन्दरं पृथिव्यादिषु सद्योगमनयोग्यमुषाइव प्रकाशमानं यथा तथा सुविचारेण रचयन्तु ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणूस ज्या यानाने जाऊ इच्छितो ते पृथ्वी इत्यादीवर तात्काळ फिरण्यायोग्य, उषःकालाप्रमाणे प्रकाशमान, विचारपूर्वक तयार करावे. ॥ २ ॥