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आ वां॑ दा॒नाय॑ ववृतीय दस्रा॒ गोरोहे॑ण तौ॒ग्र्यो न जिव्रि॑:। अ॒पः क्षो॒णी स॑चते॒ माहि॑ना वां जू॒र्णो वा॒मक्षु॒रंह॑सो यजत्रा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vāṁ dānāya vavṛtīya dasrā gor oheṇa taugryo na jivriḥ | apaḥ kṣoṇī sacate māhinā vāṁ jūrṇo vām akṣur aṁhaso yajatrā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। वा॒म्। दा॒नाय॑। व॒वृ॒ती॒य॒। द॒स्रा॒। गोः। ओहे॑न। तौ॒ग्र्यः। न। जिव्रिः॑। अ॒पः। क्षो॒णी इति॑। स॒च॒ते॒। माहि॑ना। वा॒म्। जू॒र्णः। वा॒म्। अक्षुः॑। अंह॑सः। य॒ज॒त्रा॒ ॥ १.१८०.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:180» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:23» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (दस्रा) दुःख दूर करने और (यजत्रा) सर्वव्यवहार की सङ्गति करानेवाले स्त्री-पुरुषो ! (जीव्रिः) जीर्णवृद्ध (तौग्र्यः) बलवानों में बली जन के (न) समान मैं (गोरोहेण) पृथिवी के बीज स्थापन से (वाम्) तुम दोनों को (दानाय) देने के लिये (आववृतीय) अच्छे वर्त्तूं जैसे (माहिना) बड़ी होने से (क्षोणी) भूमि (अपः) जलों का (सचते) सम्बन्ध करती है वैसे (जूर्णः) रोगवान् मैं (वाम्) तुम्हारा सम्बन्ध करूँ और (अक्षुः) व्याप्त होने को शीलस्वभाववाला मैं (अंहसः) दुष्टाचार से (वाम्) तुम दोनों को अलग रक्खूँ ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। विद्वान् जन स्त्री-पुरुषों के लिये ऐसा उपदेश करें कि जैसे हम लोग तुम्हारे लिये विद्यायें देवें, दुष्ट आचारों से अलग रक्खें वैसा तुमको भी आचरण करना चाहिये और पृथिवी के समान क्षमा तथा परोपकारादि कर्म करने चाहियें ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे दस्रा यजत्रा जिव्रिस्तौग्र्यो नाहं गोरोहेण वां दानायाववृतीय यथा माहिना क्षोण्यपः सचते तथा जूर्णोऽहं वां सचेयमक्षुरंहसो वां पृथग्रक्षेयम् ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (वाम्) युवाम् (दानाय) (ववृतीय) वर्त्तयामि। अत्र बहुलं छन्दसीति साभ्यासत्वम्। (दस्रा) दुःखोपक्षेतारौ (गोः) पृथिव्याः (ओहेन) बीजादिस्थापनेन (तौग्र्यः) तुग्रा बलिनस्तेषु भवः (न) इव (जिव्रिः) जीर्णो वृद्धः (अपः) जलानि (क्षोणी) भूमिः (सचते) सम्बध्नाति (माहिना) महत्वेन (वाम्) युवम् (जूर्णः) रोगी (वाम्) युवाम् (अक्षुः) व्याप्तुं शीलः (अंहसः) दुष्टाचारात् (यजत्रा) सङ्गमयितारौ ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। विद्वांसो स्त्रीपुरुषेभ्य एवमुपदिशेयुर्यथा वयं युष्मभ्यं विद्या दद्याम दुष्टाचारात् पृथग्रक्षयेम तथा युष्माभिरप्याचरणीयम्। पृथिवीवत् क्षमोपकारादीनि कर्माणि कर्त्तव्यानि ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. विद्वान लोकांनी स्त्री-पुरुषांना असा उपदेश करावा, की आम्ही जसे तुमच्यासाठी विद्या देतो, दुष्ट आचरणापासून दूर ठेवतो तसे तुम्हीही आचरण केले पाहिजे व पृथ्वीप्रमाणे क्षमा व परोपकार इत्यादी कर्म केले पाहिजे. ॥ ५ ॥