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शु॒ष्मिन्त॑मो॒ हि ते॒ मदो॑ द्यु॒म्निन्त॑म उ॒त क्रतु॑:। वृ॒त्र॒घ्ना व॑रिवो॒विदा॑ मंसी॒ष्ठा अ॑श्व॒सात॑मः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śuṣmintamo hi te mado dyumnintama uta kratuḥ | vṛtraghnā varivovidā maṁsīṣṭhā aśvasātamaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शु॒ष्मिन्ऽत॑मः। हि। ते॒। मदः॑। द्यु॒म्निन्ऽत॑मः। उ॒त। क्रतुः॑। वृ॒त्र॒ऽघ्ना। व॒रि॒वः॒ऽविदा॑। मं॒सी॒ष्ठाः। अ॒श्व॒ऽसात॑मः ॥ १.१७५.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:175» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सबके ईश्वर सभापति ! (हि) जिस कारण (ते) आपका (शुष्मिन्तमः) अतीव बलवाला (मदः) आनन्द (उत) और (द्युम्निन्तमः) अतीव यशयुक्त (क्रतुः) पराक्रमरूप कर्म है उससे (वृत्रघ्ना) मेघ को छिन्न-भिन्न करनेवाले सूर्य के समान प्रकाशमान (वरिवोविदा) जिससे कि सेवा को प्राप्त होता उस पराक्रम से (अश्वसातमः) अतीव अश्वादिकों का अच्छे विभाग करनेवाले आप दूसरे के विषय (=विनय) को (मंसीष्ठाः) मानो ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य के समान तेजस्वी, बिजुली के समान पराक्रमी, यशस्वी, अत्यन्त बली जन विद्या, विनय और धर्म का सेवन करते हैं, वे सुख को प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे सर्वेश हि ते शुष्मिन्तमो मद उतापि द्युम्निन्तमः क्रतुः पराक्रमोऽस्ति तेन वृत्रघ्ना वरिवोविदाऽश्वसातमो मंसीष्ठाः ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शुष्मिन्तमः) अतिशयेन बली (हि) यतः (ते) तव (मदः) हर्षः (द्युम्निन्तमः) अतिशयेन यशस्वी (उत) अपि (क्रतुः) कर्मपराक्रमः (वृत्रघ्ना) वृत्रं मेघं हन्ति यस्तेन सूर्येणेव (वरिवोविदा) परिचरणं विन्दति प्राप्नोति येन तेन पराक्रमेण (मंसीष्ठाः) मन्येथाः (अश्वसातमः) योऽश्वान् सनति संभजति सोऽतिशयितः ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्य्यवत्तेजस्विनो विद्युद्वत्पराक्रमिणो यशस्विनो बलिष्ठा विद्याविनयधर्मान् सेवन्ते ते सुखमश्नुवते ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सूर्याप्रमाणे तेजस्वी, विद्युतप्रमाणे पराक्रमी, यशस्वी, अत्यंत बलवान, विद्या, विनय व धर्माचे सेवन करतात ते सुख प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥