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अजा॒ वृत॑ इन्द्र॒ शूर॑पत्नी॒र्द्यां च॒ येभि॑: पुरुहूत नू॒नम्। रक्षो॑ अ॒ग्निम॒शुषं॒ तूर्व॑याणं सिं॒हो न दमे॒ अपां॑सि॒ वस्तो॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ajā vṛta indra śūrapatnīr dyāṁ ca yebhiḥ puruhūta nūnam | rakṣo agnim aśuṣaṁ tūrvayāṇaṁ siṁho na dame apāṁsi vastoḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अज॑। वृतः॑। इ॒न्द्र॒। शूर॑ऽपत्नीः। द्याम्। च॒। येभिः॑। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। नू॒नम्। रक्षः॑। अ॒ग्निम्। अ॒शुष॑म्। तूर्व॑याणम्। सिं॒हः। न। दमे॑। अपां॑सि। वस्तोः॑ ॥ १.१७४.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:174» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:16» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजजन सपत्नीक परिभ्रमण करें और कलाकौशल की सिद्धि के लिये अग्निविद्या को जानें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरुहूत) बहुतों ने सत्कार किये हुए (इन्द्र) शत्रुदल के नाशक (वृतः) राज्याधिकार में स्वीकार किये हुए राजन् ! आप (येभिः) जिनके साथ (शूरपत्नीः) शूरों की पत्नी और (द्याञ्च) प्रकाश को (नूनम्) निश्चित (अज) जानो उनके साथ (सिंहः) सिंह के (न) समान (दमे) घर में (अपांसि) कर्मों के (वस्तोः) रोकने को (तूर्वयाणम्) शीघ्र गमस करानेवाले यान जिससे सिद्ध होते उस (अशुषम्) शोषरहित जिसमें अर्थात् लोहा, तांबा, पीतल आदि धातु पिघिला करें गीले हुआ करें उस (अग्निम्) अग्नि को (रक्षो) अवश्य रक्खो ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सिंह अपने भिटे में बल से सबको रोकता ले जाता है, वैसे राजा निज बल से अपने घर में लाभप्राप्ति के लिये प्रयत्न करे। जिस अच्छे प्रकार प्रयोग किये अग्नि से यान शीघ्र जाते हैं, उस अग्नि से सिद्ध किये हुए यान पर स्थिर होकर स्त्री-पुरुष इधर-उधर से आवें-जावें ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजानस्सपत्नीकाः परिवर्त्तन्तां कलाकौशलसिद्धये अग्निविद्यां विदन्त्वित्याह ।

अन्वय:

हे पुरुहूतेन्द्र वृतस्त्वं येभिस्सह शूरपत्नीर्द्यां च नूनमज जानीहि तैः सिंहो न दमेऽपांसि वस्तोः तूर्वयाणमशुषमग्निं रक्षो ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अज) जानीहि। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वृतः) स्वीकृतः सन् (इन्द्र) शत्रुदलविदारक (शूरपत्नीः) शूराणां स्त्रियः (द्याम्) प्रकाशम् (च) (येभिः) यैः (पुरुहूत) बहुभिस्सत्कृत (नूनम्) निश्चितम् (रक्षो) रक्षैव (अग्निम्) (अशुषम्) शोषरहितम् (तूर्वयाणम्) तूर्वाणि शीघ्रगमनानि यानानि यस्मात्तम् (सिंहः) (न) इव (दमे) गृहे (अपांसि) कर्माणि (वस्तोः) वासयितुम् ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा सिंहः स्वगृहे बलात्सर्वान् निरुणद्धि तथा निजबलाद्राजा स्वगृहे लाभप्राप्तये प्रयतेत। येन संयुक्तेनाग्निना यानानि तूर्णं गच्छन्ति तेन संसाधिते याने स्थित्वा सत्पत्नीका इतस्ततो गच्छन्त्वागच्छन्तु ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सिंह बलपूर्वक सर्वांना आपल्या गुहेत घेऊन जातो तसे राजाने आपल्या बलाने आपल्या स्थानी लाभप्राप्तीसाठी प्रयत्न करावा. चांगल्या प्रकारे प्रयोगात आणलेल्या अग्नीने याने शीघ्र गमन करतात. त्या अग्नीने सिद्ध केलेल्या यानात बसून स्त्री-पुरुषांनी इकडे तिकडे भ्रमण करावे. ॥ ३ ॥