वांछित मन्त्र चुनें

ए॒वा हि ते॒ शं सव॑ना समु॒द्र आपो॒ यत्त॑ आ॒सु मद॑न्ति दे॒वीः। विश्वा॑ ते॒ अनु॒ जोष्या॑ भू॒द्गौः सू॒रीँश्चि॒द्यदि॑ धि॒षा वेषि॒ जना॑न् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evā hi te śaṁ savanā samudra āpo yat ta āsu madanti devīḥ | viśvā te anu joṣyā bhūd gauḥ sūrīm̐ś cid yadi dhiṣā veṣi janān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व। हि। ते॒। शम्। सव॑ना। स॒मु॒द्रे। आपः॑। यत्। ते॒। आ॒सु। मद॑न्ति। दे॒वीः। विश्वा॑। ते॒। अनु॑। जोष्या॑। भू॒त्। गौः। सू॒रीन्। चि॒त्। यदि॑। धि॒षा। वेषि॑। जना॑न् ॥ १.१७३.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:173» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:14» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:8


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों के उपदेश से राजविषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभापति ! (समुद्रे) अन्तरिक्ष में (आपः) जलों के समान (ते) आपके (हि) ही (सवना) ऐश्वर्य (शम्) सुख (एव) ही करते हैं वा (ते) आपकी (देवीः) दिव्य गुण सम्पन्न विदुषी (यत्) जब (आसु) इन जलों में (मदन्ति) हर्षित होती हैं और आप (यदि) जो (धिषा) उत्तम बुद्धि से (सूरीन्) विद्वान् (चित्) मात्र (जनान्) जनों को (वेषि) चाहते हो तब (ते) आपकी (विश्वा) समस्त (गौः) विद्या सुशिक्षायुक्त वाणी (अनु, जोष्या) अनुकूलता से सेवने योग्य (भूत्) होती है ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य आकाश में मेघ की उन्नति कर सबको सुखी करता है, वैसे सज्जन पुरुष का बढ़ता हुआ ऐश्वर्य सबको आनन्दित करता है, जैसे पुरुष विद्वान् हों, वैसे स्त्री भी हों ॥ ८ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वदुपदेशेन राजविषयमाह ।

अन्वय:

हे इन्द्र सभेश समुद्र आप इव ते हि सवनाच्छमेव कुर्वन्ति ते देवीर्यदासु मदन्ति त्वं च यदि धिषा सूरींश्चिज्जनान् वेषि तदा ते विश्वा गौरनुज्जोष्याभूत् ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एव) अवधारणे। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (हि) खलु (ते) तव (शम्) सुखम् (सवना) ऐश्वर्य्याणि (समुद्रे) अन्तरिक्षे (आपः) जलानि (यत्) यदा (ते) तव (आसु) अप्सु (मदन्ति) (देवीः) दिव्यगुणसम्पन्नाः (विश्वा) सर्वा (ते) तव (अनु) (जोष्या) सेवितुं योग्या (भूत्) भवति। अत्राडभावः। (गौः) विद्यासुशिक्षिता वाणी (सूरीन्) विदुषः (चित्) (यदि) (धिषा) प्रज्ञया (वेषि) कामयसे (जनान्) उत्तमान् मनुष्यान् ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य आकाशे मेघमुन्नीय सर्वान् सुखयति तथा सत्पुरुषस्यैश्वर्य्यं वर्द्धमानं सत्सकलानानन्दयति यथा पुरुषा विद्वांसो भवेयुस्तथैव स्त्रियोऽपि स्युः ॥ ८ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य आकाशात मेघांची वृद्धी करतो व सुखी करतो. तसे सज्जन पुरुषाचे वाढलेले ऐश्वर्य सर्वांना आनंदित करते. जसा पुरुष विद्वान असावा तशी स्त्रीही असावी. ॥ ८ ॥