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किं नो॑ भ्रातरगस्त्य॒ सखा॒ सन्नति॑ मन्यसे। वि॒द्मा हि ते॒ यथा॒ मनो॒ऽस्मभ्य॒मिन्न दि॑त्ससि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kiṁ no bhrātar agastya sakhā sann ati manyase | vidmā hi te yathā mano smabhyam in na ditsasi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

किम्। न॒। भ्रा॒तः॒। अ॒ग॒स्त्य॒। सखा॑। सन्। अति॑। म॒न्य॒से॒। वि॒द्म। हि। ते॒। यथा॑। मनः॑। अ॒स्मभ्य॑म्। इत्। न। दि॒त्स॒सि॒ ॥ १.१७०.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:170» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अगस्त्य) विज्ञान में उत्तमता रखनेवाले (भ्रातः) भाई विद्वान् (सखा) मित्र (सन्) होते हुए आप (नः) हम लोगों को (किम्) क्या (अति, मन्यसे) अतिमान करते हो ? अर्थात् हमारे मान को छोड़कर वर्त्तते हो ? (यथा) जैसे (ते) तुम्हारा अपना (मनः) अन्तःकरण (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (हि) ही (न) न (दित्ससि) देना चाहते हो अर्थात् हमारे लिये अपने अन्तःकरण को उत्साहित क्या नहीं किया चाहते हो ? वैसे (इत्) ही तुमको हम लोग (विद्म) जानें ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो जिनके मित्र हों वे मन, वचन और कर्म से उनकी प्रसन्नता का काम करें और जितना विद्या, ज्ञान अपने को हो उतना मित्र के समर्पण करे ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अगस्त्य भ्रातः विद्वन् सखा संस्त्वं नः किमति मन्यसे ? यथा ते मनोऽस्मभ्यं हि न दित्ससि तथेत्त्वा वयं विद्म ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (किम्) प्रश्ने (नः) अस्मान् (भ्रातः) बन्धो (अगस्त्य) अगस्तौ विज्ञाने साधो (सखा) मित्रम् (सन्) (अति) (मन्यसे) (विद्म) जानीयाम। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (हि) किल (ते) तव (यथा) (मनः) अन्तःकरणम् (अस्मभ्यम्) (इत्) एव (न) (दित्ससि) दातुमिच्छसि ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये येषां सखायस्ते मनःकर्मवाग्भिस्तेषां प्रियमाचरेयुर्यावज्ज्ञानं स्वस्य भवेत्तावन्मित्राय समर्पयेत् ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे ज्याचे मित्र असतील त्यांनी मन, वचन व कर्माने त्यांच्या प्रसन्नतेसाठी काम करावे व जितकी विद्या व ज्ञान आपल्याजवळ असेल तितके मित्राला द्यावे. ॥ ३ ॥