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किं न॑ इन्द्र जिघांससि॒ भ्रात॑रो म॒रुत॒स्तव॑। तेभि॑: कल्पस्व साधु॒या मा न॑: स॒मर॑णे वधीः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kiṁ na indra jighāṁsasi bhrātaro marutas tava | tebhiḥ kalpasva sādhuyā mā naḥ samaraṇe vadhīḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

किम्। नः॒। इ॒न्द्र॒। जि॒घां॒स॒सि॒। भ्रात॑रः। म॒रुतः॑। तव॑। तेभिः॑। क॒ल्प॒स्व॒। सा॒धु॒ऽया। मा। नः॒। स॒म्ऽअर॑णे। व॒धीः॒ ॥ १.१७०.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:170» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सभापति विद्वान् ! जो हम (मरुतः) मनुष्य लोग (तव) आपके (भ्रातरः) भाई हैं उन (नः) हम लोगों को (किम्) क्या (जिंघाससि) मारने की इच्छा करते हो ? (तेभिः) उन हम लोगों के साथ (साधुया) उत्तम काम से (कल्पस्व) समर्थ होओ और (समरणे) संग्राम में (नः) हम लोगों को (मा, वधीः) मत मारिये ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - जो कोई बन्धुओं को पीड़ा देना चाहें वे सदा पीड़ित होते हैं और जो बन्धुओं की रक्षा किया चाहते हैं वे समर्थ होते हैं अर्थात् सब काम उनके प्रबलता से बनते हैं, जो सबका उपकार करनेवाले हैं, उनको कुछ भी काम अप्रिय नहीं प्राप्त होता ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे इन्द्र ये वयं मरुतस्तव भ्रातरः स्मस्तान्नोऽस्मान् किं जिघांससि ? तेभिः साधुया कल्पस्व समरणे नो मा वधीः ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (किम्) (नः) अस्मान् (इन्द्र) सभेश विद्वन् (जिघांससि) हन्तुमिच्छसि (भ्रातरः) बन्धवः (मरुतः) मनुष्याः (तव) (तेभिः) तैः सह (कल्पस्व) समर्थो भव (साधुया) साधुना कर्मणा (मा) (नः) अस्मान् (समरणे) सङ्ग्रामे। समरण इति संग्रामना०। निघं० २। १७। (वधीः) हन्याः ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - ये बन्धून् पीडयितुमिच्छेयुस्ते सदा पीडिता जायन्ते ये रक्षितुमिच्छन्ति ते समर्था भवन्ति। ये सर्वोपकारकास्तेषां किञ्चिदप्यप्रियं न प्राप्तं भवति ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे कोणी माणसांना पीडा देऊ इच्छितात ते सदैव पीडित होतात व जे त्यांचे रक्षण करू इच्छितात ते समर्थ असतात. अर्थात् सर्व काम त्यांच्या प्रबलतेने होते. जे सर्वांवर उपकार करणारे असतात, त्यांना कोणतेही काम अप्रिय नसते. ॥ २ ॥