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आ यद्दु॑व॒स्याद्दु॒वसे॒ न का॒रुर॒स्माञ्च॒क्रे मा॒न्यस्य॑ मे॒धा। ओ षु व॑र्त्त मरुतो॒ विप्र॒मच्छे॒मा ब्रह्मा॑णि जरि॒ता वो॑ अर्चत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā yad duvasyād duvase na kārur asmāñ cakre mānyasya medhā | o ṣu vartta maruto vipram acchemā brahmāṇi jaritā vo arcat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। यत्। दु॒व॒स्यात्। दु॒वसे॑। न। का॒रुः। अ॒स्मान्। च॒क्रे। मा॒न्यस्य॑। मे॒धा। ओ इति॑। सु। व॒र्त्त॒। म॒रु॒तः॒। विप्र॑म्। अच्छ॑। इ॒मा। ब्रह्मा॑णि। ज॒रि॒ता। वः॒। अ॒र्च॒त् ॥ १.१६५.१४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:165» मन्त्र:14 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:26» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) विद्वानो ! (यत्) जिस कारण (दुवस्यात्) सेवन करनेवाले से (दुवसे) सेवन करनेवाले अर्थात् एक से अधिक दूसरे के लिये जैसे (न) वैसे हम लोगों के लिये प्राप्त हुई (मान्यस्य) मानने योग्य योग्यता को प्राप्त सज्जन की (कारुः) शिल्प कार्यों को सिद्ध करनेवाली (मेधा) बुद्धि (अस्मान्) हम लोगों को (आ, चक्रे) करती है अर्थात् शिल्पकार्यों में निपुण करती है इससे तुम (विप्रम्) मेधावी धीरबुद्धिवाले पुरुष के (ओ, षु, वर्त्त) सम्मुख वर्त्तमान होओ, किसलिये (जरिता) स्तुति करनेवाला (इमा) इन (ब्रह्माणि) वेदों को संग्रह कर (अच्छ) अच्छे प्रकार (वः) तुम लोगों को (अर्चत) सेवे ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे शिल्पीजन शिल्पविद्या से सिद्ध की हुई वस्तुओं का सेवन करते हैं, वैसे वेदार्थ और वेदज्ञान सबको सेवने चाहिये, जिस कारण वेदविद्या के विना अतीव सत्कार करने योग्य विद्वान् नहीं होता ॥ १४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मरुतो यद्दुवस्याद्दुवसे नास्मभ्यं प्राप्ता मान्यस्य कारुर्मेधाऽस्मान् कारूनाचक्रेऽतो यूयं विप्रमो षु वर्त्त किमर्थं तत्राह जरिताऽच्छेमा ब्रह्माणि संगृह्याच्छ वोऽर्चत् ॥ १४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (यत्) यस्मात् (दुवस्यात्) सेवमानात् (दुवसे) दुवस्यते परिचरते (न) इव (कारुः) शिल्पकार्यसाधिका (अस्मान्) (चक्रे) करोति (मान्यस्य) माननीयस्य योग्यस्य (मेधा) प्रज्ञा (ओ) आभिमुख्ये (सु) (वर्त्त) वर्त्तध्वम् (मरुतः) विद्वांसः (विप्रम्) मेधाविनम् (अच्छ) (इमा) इमानि (ब्रह्माणि) वेदान् (जरिता) स्तोता (वः) युष्मान् (अर्च्चत्) सत्कुर्यात् ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा शिल्पिनः शिल्पविद्यासिद्धानि वस्तूनि सेवन्ते तथा वेदार्थास्तज्ज्ञानं च सर्वैः सेवितव्यम्। नहि वेदविद्यया विना पूज्यतमो विद्वान् स्यात् ॥ १४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे कारागीर शिल्पविद्येने सिद्ध केलेल्या वस्तूंचा अंगीकार करतात तसे वेदार्थ व वेदज्ञान सर्वांनी स्वीकारले पाहिजे. वेदविद्येशिवाय कुणीही पूज्य विद्वान सत्कार करण्यायोग्य नसतो. ॥ १४ ॥