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इ॒ह ब्र॑वीतु॒ य ई॑म॒ङ्ग वेदा॒स्य वा॒मस्य॒ निहि॑तं प॒दं वेः। शी॒र्ष्णः क्षी॒रं दु॑ह्रते॒ गावो॑ अस्य व॒व्रिं वसा॑ना उद॒कं प॒दापु॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iha bravītu ya īm aṅga vedāsya vāmasya nihitam padaṁ veḥ | śīrṣṇaḥ kṣīraṁ duhrate gāvo asya vavriṁ vasānā udakam padāpuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒ह। ब्र॒वी॒तु॒। यः। ई॒म्। अ॒ङ्ग। वेद॑। अ॒स्य। वा॒मस्य॑। निऽहि॑तम्। प॒दम्। वेरिति॒ वेः। शी॒र्ष्णः। क्षी॒रम्। दु॒ह्र॒ते॒। गावः॑। अ॒स्य॒। व॒व्रिम्। वसा॑नाः। उ॒द॒कम्। प॒दा। अ॒पुः॒ ॥ १.१६४.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अङ्ग) प्यारे (यः) जो (अस्य) इस (वामस्य) प्रशंसित (वेः) पक्षी के (निहितम्) धरे हुए (पदम्) पद को (वेद) जानता है, वह (इह) इस प्रश्न में (ईम्) सब ओर से उत्तम (व्रवीतु) कह देवे। जैसे (वसानाः) झूल ओढ़े हुई (गावः) गौएँ (क्षीरम्) दूध को (दुह्रते) पूरा करती अर्थात् दुहाती हैं वा वृक्ष (पदा) पग से (उदकम्) जल को (अपुः) पीते हैं वैसे (शीर्ष्णः, अस्य) इसके शिर के (वव्रिम्) स्वीकार करने योग्य सब व्यवहार को जानें ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे पक्षी अन्तरिक्ष में भ्रमते हैं, वैसे ही सब लोक अन्तरिक्ष में भ्रमते हैं। जैसे गौएँ बछड़ों के लिये दूध देकर बढ़ाती हैं, वैसे कारण कार्यों को बढ़ाते हैं वा जैसे वृक्ष जड़ में जल पीकर बढ़ते हैं, वैसे कारण से कार्य बढ़ता है ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अङ्ग योऽस्य वामस्य वेर्निहितं पदं वेद स इहेमुत्तरं ब्रवीतु यथा वसाना गावः क्षीरं दुह्रते वृक्षाः पदोदकमपुस्तथा शीर्ष्णोऽस्य वव्रिं जानीयुः ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) अस्मिन् प्रश्ने (ब्रवीत्) वदतु (यः) (ईम्) सर्वतः (अङ्ग) (वेद) जानाति (अस्य) (वामस्य) प्रशस्तस्य जगतः (निहितम्) स्थापितम् (पदम्) (वेः) पक्षिणः (शीर्ष्णः) शिरसः (क्षीरम्) दुग्धम् (दुह्रते) दुहन्ति (गावः) धेनवः (अस्य) (वव्रिम्) वर्त्तुमर्हम् (वसानाः) आच्छादिताः (उदकम्) जलम् (पदा) पादेन (अपुः) पिबन्ति ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - यथा पक्षिणोऽन्तरिक्षे भ्रमन्ति तथैव सर्वे लोका अन्तरिक्षे भ्रमन्ति। यथा गावो वत्सेभ्यो दुग्धं दत्वा वर्द्धयन्ति तथा कारणानि कार्याणि वर्द्धयन्ति। यथा वा वृक्षा मूलेन जलं पीत्वा वर्द्धन्ते तथा कारणेन कार्य्यं वर्द्धते ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे पक्षी अंतरिक्षात भ्रमण करतात तसेच सर्व लोक (गोल) अंतरिक्षात भ्रमण करतात. जशा गाई वासरांना दूध देऊन वाढवितात तसे कारण कार्य वाढविते. जसे वृक्ष मूळाद्वारे जल ओढून घेतात व वाढतात तसे कारणामुळे कार्य वाढते.