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ये अ॒र्वाञ्च॒स्ताँ उ॒ परा॑च आहु॒र्ये परा॑ञ्च॒स्ताँ उ॑ अ॒र्वाच॑ आहुः। इन्द्र॑श्च॒ या च॒क्रथु॑: सोम॒ तानि॑ धु॒रा न यु॒क्ता रज॑सो वहन्ति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ye arvāñcas tām̐ u parāca āhur ye parāñcas tām̐ u arvāca āhuḥ | indraś ca yā cakrathuḥ soma tāni dhurā na yuktā rajaso vahanti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ये। अ॒र्वाञ्चः॑। तान्। ऊँ॒ इति॑। परा॑चः। आ॒हुः॒। ये। परा॑ञ्चः। तान्। ऊँ॒ इति॑। अ॒र्वाचः॑। आ॒हुः॒। इन्द्रः॑। च॒। या। च॒क्रथुः॑। सो॒म॒। तानि॑। धु॒रा। न। यु॒क्ताः। रज॑सः। व॒ह॒न्ति॒ ॥ १.१६४.१९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:19 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:17» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:19


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) ऐश्वर्ययुक्त विद्वान् ! (ये) जो (अर्वाञ्चः) नीचे जानेवाले पदार्थ हैं (तान्, उ) उन्हीं को (पराचः) परे को पहुँचे हुए (आहुः) कहते हैं। और (ये) जो (पराञ्चः) परे से व्यवहार में लाये जाते अर्थात् परभाग में पहुँचनेवाले हैं (तान्, उ) उन्हें तर्क-वितर्क से (अर्वाचः) नीचे जानेवाले (आहुः) कहते हैं उनको जानो, (इन्द्रः) सूर्य (च) और वायु (या) जिन भुवनों को धारण करते हैं (तानि) उनको (युक्ताः) युक्त हुए अर्थात् उन में सम्बन्ध किये हुए पदार्थ (धुरा) धारण करनेवाली धुरी में जुड़े हुए घोड़ों के (न) समान (रजसः) लोकों को (वहन्ति) बहाते चलाते हैं उनको हे पढ़ाने और उपदेश करनेवालो ! तुम विदित (चक्रथुः) करो जानो ॥ १९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! यहाँ नीचे, ऊपर, परे, उरे, मोटे, सूक्ष्म, छुटाई-बड़ाई के व्यवहार हैं वे सापेक्ष हैं। एक की अपेक्षा से यह इससे ऊँचा जो कहा जाता है, वही दोनों कथनों को प्राप्त होता है। जो इससे परे है वही और से नीचे है, जो इससे मोटा है वह और से सूक्ष्म। जो-जो इससे छोटा है वह और से बड़ा गुरु है यह तुम जानो, यहाँ कोई वस्तु अपेक्षारहित नहीं है और न निराधार ही है ॥ १९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे सोम विद्वन्येऽर्वाञ्चः पदार्थाः सन्ति तानु पराच आहुः। ये पराञ्चस्तान्वेवार्वाच आहुस्तान् विजानीहि। इन्द्रो वायुश्च या यानि धरतः तानि युक्ता धुरा न रजसो वहन्ति, तानध्यापकोपदेशकौ युवां विदितान् चक्रथुः ॥ १९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) (अर्वाञ्चः) अर्वागधोऽञ्चन्ति ये (तान्) (उ) (पराचः) परभागप्राप्तान् (आहुः) कथयन्ति (ये) (पराञ्चः) परत्वेन व्यपदिष्टाः (तान्) (उ) वितर्के (अर्वाचः) अपरत्वेन व्यपदिष्टान् (आहुः) (इन्द्रः) सूर्यः (च) वायुः (या) यानि भुवनानि (चक्रथुः) कुर्यातम् (सोम) ऐश्वर्ययुक्त (तानि) (धुरा) धुरि युक्ता अश्वा (न) इव (युक्ताः) संबद्धाः (रजसः) लोकान् (वहन्ति) चालयन्ति ॥ १९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या इह येऽध ऊर्ध्वपरावरस्थूलसूक्ष्मलघुत्वगुरुत्वव्यवहाराः सन्ति ते सापेक्षा वर्त्तन्ते। एकस्यापेक्षया य इदमत ऊर्ध्वं यदुच्यते तदेव उभयमाख्यां लभते यदस्मात्परं तदेवान्यस्मादवरं यदस्मात्स्थूलं तदन्यस्मात्सूक्ष्मं यदस्माल्लघु तदन्यस्माद्गुर्विति यूयं विजानीत नह्यत्र किंचिदपि वस्तु निरपेक्षं वर्त्तते नैव चानाधारम् ॥ १९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! येथे खाली, वर, अलीकडे, पलीकडे, स्थूल, सूक्ष्म, मोठेपणा, लहानपणा इत्यादी व्यवहार आहेत ते सापेक्ष आहेत. हा त्याच्यापेक्षा उंच आहे असे म्हटले जाते. तेव्हा दोन्ही गोष्टी समजतात. जो याच्या वर आहे तो दुसऱ्यापेक्षा खाली आहे जो याच्यापेक्षा जाड (स्थूल) आहे तो दुसऱ्यापेक्षा सूक्ष्म आहे. जो याच्यापेक्षा छोटा आहे तो दुसऱ्यापेक्षा मोठा आहे. हे तुम्ही जाणा. येथे कोणतीही वस्तू अपेक्षारहित व निराधार नाही. (म्हणजेच प्रत्येक वस्तू सापेक्ष आहे). ॥ १९ ॥