वांछित मन्त्र चुनें

सा॒कं॒जानां॑ स॒प्तथ॑माहुरेक॒जं षळिद्य॒मा ऋष॑यो देव॒जा इति॑। तेषा॑मि॒ष्टानि॒ विहि॑तानि धाम॒शः स्था॒त्रे रे॑जन्ते॒ विकृ॑तानि रूप॒शः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sākaṁjānāṁ saptatham āhur ekajaṁ ṣaḻ id yamā ṛṣayo devajā iti | teṣām iṣṭāni vihitāni dhāmaśaḥ sthātre rejante vikṛtāni rūpaśaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सा॒क॒म्ऽजाना॑म्। स॒प्तथ॑म्। आ॒हुः॒। ए॒क॒ऽजम्। षट्। इत्। य॒माः। ऋष॑यः। दे॒व॒ऽजाः। इति॑। तेषा॑म्। इ॒ष्टानि॑। विऽहि॑तानि। धा॒म॒ऽशः। स्था॒त्रे। रे॒ज॒न्ते॒। विऽकृ॑तानि। रू॒प॒ऽशः ॥ १.१६४.१५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:15 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:16» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:15


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पृथिव्यादिकों की रचना विशेष की व्याख्या करते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! तुम (साकंजानाम्) एक साथ उत्पन्न हुए पदार्थों के बीच में जिस (एकजम्) एक कारण से उत्पन्न महत्तत्त्व को (सप्तथम्) सातवाँ (आहुः) कहते हैं, जहाँ (षट्) छः (देवजाः) देदीप्यमान बिजुली से उत्पन्न हुए (यमाः) नियन्ता अर्थात् सबको यथायोग्य व्यवहारों में वर्त्तानेवाले (ऋषयः) आप सब में मिलनेवाले ऋतु वर्त्तमान हैं (तेषाम्) उनके बीच जिन (धामशः) प्रत्येक स्थान में (इष्टानि) मिले हुए पदार्थों को ईश्वर ने (विहितानि) रचा है और जो (रूपशः) रूपों के साथ (विकृतानि) अवस्थान्तर को प्राप्त हुए (स्थात्रे) स्थित कारण के बीच (रेजन्ते) चलायमान होते उन सबको (इत्) ही (इति) इस प्रकार से जानो ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - जो इस जगत् में पदार्थ हैं वे सब ब्रह्म के निश्चित किये हुए व्यवहार से एक साथ उत्पन्न होते हैं। यहाँ रचना में क्रम की आकाङ्क्षा नहीं है क्योंकि परमेश्वर के सर्वव्यापक और अनन्त सामर्थ्यवाला होने से। इससे वह आप अचलित हुआ सब भुवनों को चलाता है और वह ईश्वर विकाररहित होता हुआ सबको विकारयुक्त करता है। जैसे क्रम से ऋतु वर्त्तमान हैं और अपने अपने चिह्नों को समय समय में उत्पन्न करते हैं, वैसे ही उत्पन्न होते हुए पदार्थ अपने-अपने गुणों को प्राप्त होते हैं ॥ १५ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ पृथिव्यादीनां रचनाविशेषमाह ।

अन्वय:

हे विद्वांसो यूयं साकंजानां मध्ये यदेकजं महत्तत्त्वं सप्तथमाहुः। यत्र षड् देवजा यमा ऋषय ऋतवो वर्त्तन्ते तेषां मध्ये यानि धामश इष्टानीश्वरेण विहितानि यानि रूपशो विकृतानि स्थात्रे रेजन्ते तानीदिति विजानीत ॥ १५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (साकंजानाम्) सहैव जातानाम् (सप्तथम्) सप्तमम् (आहुः) कथयन्ति (एकजम्) एकस्मात्कारणज्जातम् (षट्) (इत्) एव (यमाः) नियन्तारः (ऋषयः) गन्तारः (देवजाः) देवाद्विद्युतो जाताः (इति) प्रकारार्थे (तेषाम्) (इष्टानि) संगतानि (विहितानि) ईश्वरेण रचितानि (धामशः) धामानि धामानि (स्थात्रे) स्थिरस्य कारणस्य मध्ये। अत्र षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। (रेजन्ते) कम्पन्ते (विकृतानि) विकारमवस्थान्तरं प्राप्तानि (रूपशः) रूपैः सह ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - येऽत्र जगति पदार्थाः सन्ति ते सर्वे ब्रह्मनियोगतो युगपज्जायन्ते नात्र रचनायां क्रमाकाङ्क्षाऽस्ति कुतः परमेश्वरस्य सर्वव्यापकत्वाऽनन्तसामर्थ्यवत्त्वाभ्याम्। अतः स स्वयमचलितः सन् सर्वाणि भुवनानि चालयति, स ईश्वरोऽविकारः सन् सर्वान् विकारयति, यथा क्रमेण ऋतवो वर्त्तन्ते स्वानि लिङ्गान्युत्पादयन्ति तथैव पदार्था उत्पद्यमानाः स्वान् स्वान् गुणान् प्राप्नुवन्ति ॥ १५ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या जगात जे पदार्थ आहेत ते सर्व ब्रह्माने निश्चित केलेल्या व्यवहाराने एकाच वेळी उत्पन्न होतात. येथे रचनेत क्रमाची अपेक्षा नाही, कारण परमेश्वर सर्वव्यापक व अनन्त सामर्थ्यवान असल्यामुळे तो अचल आहे व सर्व जगाला चालवितो. ईश्वर स्वतः विकाररहित असून सर्वांना विकारयुक्त करतो. जसे क्रमाने ऋतू वर्तमान असतात व आपापली चिन्हे वेळोवेळी उत्पन्न करतात तसेच उत्पन्न झालेले पदार्थ आपापल्या गुणधर्मासह असतात. ॥ १५ ॥