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आ॒त्मानं॑ ते॒ मन॑सा॒राद॑जानाम॒वो दि॒वा प॒तय॑न्तं पतं॒गम्। शिरो॑ अपश्यं प॒थिभि॑: सु॒गेभि॑ररे॒णुभि॒र्जेह॑मानं पत॒त्रि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ātmānaṁ te manasārād ajānām avo divā patayantam pataṁgam | śiro apaśyam pathibhiḥ sugebhir areṇubhir jehamānam patatri ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒त्मान॑म्। ते॒। मन॑सा। आ॒रात्। अ॒जा॒ना॒म्। अ॒वः। दि॒वा। प॒तय॑न्तम्। प॒त॒ङ्गम्। शिरः॑। अ॒प॒श्य॒म्। प॒थिऽभिः॑। सु॒ऽगेभिः॑। अ॒रे॒णुऽभिः॑। जेह॑मानम्। प॒त॒त्रि ॥ १.१६३.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:163» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:12» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! जैसे मैं (ते) तेरे (आत्मानम्) सबके अधिष्ठाता आत्मा को (मनसा) विज्ञान से (आरात्) दूर से वा निकट से (अपश्यम्) देखूँ वैसे तूँ मेरे आत्मा को देख, जैसे मैं तेरे (अवः) पालने को वा (पतत्रि) गिरने के स्वभाव को और (शिरः) जो सेवन किया जाता उस शिर को देखूँ वैसे तूँ मेरे उक्त पदार्थ को देख, जैसे (अरेणुभिः) धूलि से रहित (सुगेभिः) सुख से जिनमें जाते उन (पथिभिः) मार्गों से (जेहमानम्) उत्तम यत्न करते (दिवा) अन्तरिक्ष में (पतयन्तम्) जाते हुए (पतङ्गम्) प्रत्येक स्थान में पहुँचनेवाले अग्निरूप घोड़े को (अजानाम्) देखूँ वैसे तूँ भी देख ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो अपने वा पराये आत्मा के जाननेवाले विज्ञान से उत्पन्न कार्यों की परीक्षा द्वारा कारण गुणों को जानते हैं वे सुख से विद्वान् होते हैं। जो विन ढपे, विन, धूल के संयोग अन्तरिक्ष में अग्नि आदि पदार्थों के योग से विमानादिकों को चलाते हैं, वे दूर देश को भी शीघ्र जाने को योग्य होते हैं ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे विद्वन् यथाऽहं ते तवात्मानं मनसाऽऽरादपश्यं तथा त्वं मदात्मानं पश्य यथाहं तवावः पतत्रि शिरोऽपश्यं तथा त्वं ममैतत्पश्य यथाऽरेणुभिः सुगेभिः पथिभिर्जेहमानं दिवा पतयन्तं पतङ्गमग्निमश्वमजानां तथा त्वमपि पश्य ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आत्मानम्) सर्वाधिष्ठातारम् (ते) तव (मनसा) विज्ञानेन (आरात्) दूरात् समीपाद्वा (अजानाम्) जानीयाम् (अवः) रक्षणम् (दिवा) दिव्यन्तरिक्षे (पतयन्तम्) गमयन्तम् (पतङ्गम्) यः प्रतियातं गच्छति तम् (शिरः) यच्छ्रीयते तदुत्तमाङ्गम् (अपश्यम्) पश्येयम् (पथिभिः) (सुगेभिः) सुखेन गमनाधिकरणैः (अरेणुभिः) अविद्यमानरजस्पर्शैः (जेहमानम्) प्रयतमानम् (पतत्रि) पतनशीलम् ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये स्वपरात्मविदो विज्ञानेनोत्पन्नकार्यपरीक्षाद्वारा कारणगुणान् जानन्ति सुखेन विद्वांसो भवन्ति येऽनावरणे रजोयोगविरहेऽन्तरिक्षेऽग्न्यादियोगेन विमानानि चालयन्ति ते दूरमपि देशं सद्यो गन्तुमर्हन्ति ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे आपल्या व इतरांच्या आत्म्याला जाणणाऱ्या विज्ञानाने उत्पन्न झालेल्या कार्याचे परीक्षेद्वारे कारण गुण जाणतात ते सुखपूर्वक विद्वान बनतात. ते रजःकणरहित अंतरिक्षात अग्नी इत्यादी पदार्थांच्या योगाने विमान इत्यादी चालवितात ते दूरच्या देशातही शीघ्र गमन करतात. ॥ ६ ॥