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होता॑ध्व॒र्युराव॑या अग्निमि॒न्धो ग्रा॑वग्रा॒भ उ॒त शंस्ता॒ सुवि॑प्रः। तेन॑ य॒ज्ञेन॒ स्व॑रंकृतेन॒ स्वि॑ष्टेन व॒क्षणा॒ आ पृ॑णध्वम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hotādhvaryur āvayā agnimindho grāvagrābha uta śaṁstā suvipraḥ | tena yajñena svaraṁkṛtena sviṣṭena vakṣaṇā ā pṛṇadhvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। अ॒ध्व॒र्युः। आऽव॑याः। अ॒ग्नि॒म्ऽइ॒न्धः। ग्रा॒व॒ऽग्रा॒भः। उ॒त। शंस्ता॑। सुऽवि॑प्रः। तेन॑। य॒ज्ञेन॑। सुऽअ॑रङ्कृतेन। सुऽइ॑ष्टेन। व॒क्षणाः॑। आ। पृ॒ण॒ध्व॒म् ॥ १.१६२.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:162» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:7» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (होता) यज्ञ सिद्ध कराने (अध्वर्युः) अपने को नष्ट न होने की इच्छा करने (आवयाः) अच्छे प्रकार मिलने (अग्निमिन्धः) अग्नि को प्रकाशित करने (ग्रावग्राभः) प्रशंसकों को ग्रहण करने (उत) और (शंस्ता) प्रशंसा करनेवाला (सुविप्रः) सुन्दर बुद्धिमान् विद्वान् है (तेन) उसके साथ (स्विष्टेन) उत्तम चाहे और (स्वरङ्कृतेन) सुन्दर पूर्ण किये हुए (यज्ञेन) यज्ञकर्म से (वक्षणाः) नदियों को तुम (आ, पृणध्वम्) अच्छे प्रकार पूर्ण करो ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्य दुर्गन्ध के निवारने और सुख की उन्नति के लिये यज्ञ का अनुष्ठान कर सर्वत्र देशों में सुगन्धित जलों को वर्षा कर नदियों को परिपूर्ण करें अर्थात् जल से भरें ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यो होताऽध्वर्युरावयाऽग्निमिन्धो ग्रावग्राभ उतापि शंस्ता सुविप्रो विद्वानस्ति तेन साकं स्विष्टेन स्वरङ्कृतेन यज्ञेन वक्षणा यूयमापृणध्वम् ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (होता) यज्ञसाधकः (अध्वर्युः) आत्मनोऽध्वरमहिंसनमिच्छुः (आवयाः) यः समन्ताद्यजति संगच्छते सः (अग्निमिन्धः) अग्निप्रदीपकः (ग्रावग्राभः) यो ग्राव्णः स्तावकान् गृह्णाति सः (उत) (शंस्ता) प्रशंसिता (सुविप्रः) सुष्ठुमेधावी (तेन) (यज्ञेन) (स्वरङ्कृतेन) सुष्ठुपूर्णेन कृतेन (स्विष्टेन) (वक्षणाः) नदीः (आ) (पृणध्वम्) पूरयध्वम् ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - सर्वे मनुष्या दुर्गन्धनिवारणाय सुखोन्नतये च यज्ञाऽनुष्ठानं कृत्वा सर्वत्र देशेषु सुगन्धिता अपो वर्षयित्वा नदीः पूरयेयुः ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी दुर्गंधाचे निवारण करण्यासाठी व सुखाची वाढ होण्यासाठी यज्ञाचे अनुष्ठान करावे व सर्व स्थानी सुगंधित जलाची वृष्टी करवून नद्या जलाने परिपूर्ण कराव्यात. ॥ ५ ॥