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न वा उ॑ ए॒तन्म्रि॑यसे॒ न रि॑ष्यसि दे॒वाँ इदे॑षि प॒थिभि॑: सु॒गेभि॑:। हरी॑ ते॒ युञ्जा॒ पृष॑ती अभूता॒मुपा॑स्थाद्वा॒जी धु॒रि रास॑भस्य ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na vā u etan mriyase na riṣyasi devām̐ id eṣi pathibhiḥ sugebhiḥ | harī te yuñjā pṛṣatī abhūtām upāsthād vājī dhuri rāsabhasya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। वै। ऊँ॒ इति॑। ए॒तत्। म्रि॒य॒से॒। न। रि॒ष्य॒सि॒। दे॒वान्। इत्। ए॒षि॒। प॒थिऽभिः॑। सु॒ऽगेभिः॑। हरी॑ इति॑। ते॒। युञ्जा॑। पृष॑ती॒ इति॑। अ॒भू॒ता॒म्। उप॑। अ॒स्था॒त्। वा॒जी। धु॒रि। रास॑भस्य ॥ १.१६२.२१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:162» मन्त्र:21 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:10» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:21


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! यदि जो (ते) तुम्हारे मन वा आत्मा यथायोग्य करने में (युञ्जा) युक्त (हरी) धारण और आकर्षण गुणवाले (पृषती) वा सींचनेवाले जल का गुण रखते हुए (अभूताम्) होते हैं उनका जो (उपास्थात्) उपस्थान करे वा (रासभस्य) शब्द करते हुए रथ आदि की (धुरी) धुरी में (वाजी) वेग तुल्य हो तो (एतत्) इस उक्त रूप को पाकर (न, वै म्रियसे) नहीं मरते (न, उ) अथवा तो न (रिष्यसि) किसी को मारते हो और (सुगेभिः) सुखपूर्वक जिनसे जाते हैं उन (पथिभिः) मार्गों से (इत्) ही (देवान्) विद्वानों वा दिव्य पदार्थों को (एषि) प्राप्त होते हो ॥ २१ ॥
भावार्थभाषाः - जो योगाभ्यास से समाहित चित्त दिव्य योगी जनों को अच्छे प्रकार प्राप्त हो धर्म-युक्त मार्ग से चलते हुए परमात्मा में अपने आत्मा को युक्त करते हैं, वे मोक्ष पाये हुए होते हैं ॥ २१ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे विद्वन् यदि यौ ते मन आत्मा वा युञ्जा हरी पृषती अभूतां यस्तावुपास्थात्। रासभस्य धुरि वाजीव भवेस्तर्हि एतत्स्वरूपं प्राप्य न वै म्रियसे न उ रिष्यसि सुगेभिः पथिभिरिदेव देवानेषि ॥ २१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) (वै) निश्चये (उ) वितर्के (एतत्) चेतनस्वरूपम् (म्रियसे) (न) (रिष्यसि) हंसि (देवान्) विदुषो दिव्यान् पदार्थान् वा (इत्) एव (एषि) प्राप्नोषि (पथिभिः) मार्गैः (सुगेभिः) सुखेन गच्छन्ति येषु तैः (हरी) धारणाकर्षणगुणौ (ते) तव (युञ्जा) युञ्जानौ (पृषती) सेक्तारौ जलगुणौ (अभूताम्) भवतः (उप) (अस्थात्) तिष्ठेत् (वाजी) वेगः (धुरि) धारके (रासभस्य) शब्दायमानस्य ॥ २१ ॥
भावार्थभाषाः - ये योगाभ्यासेन समाहितात्मानो दिव्यान् योगिनः सङ्गस्य धर्म्यमार्गेण गच्छन्तः परमात्मनि स्वात्मानं युञ्जते ते प्राप्तमोक्षा जायन्ते ॥ २१ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे योगाभ्यासाने समाहित चित्त असलेल्या दिव्य योगी लोकांचा चांगल्या प्रकारे संग करतात व धर्मयुक्त मार्गाने क्रमण करीत परमात्म्यात आपल्या आत्म्याला युक्त करतात त्यांनाच मोक्ष मिळतो. ॥ २१ ॥