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ब्राह्म॑णादिन्द्र॒ राध॑सः॒ पिबा॒ सोम॑मृ॒तूँरनु॑। तवेद्धि स॒ख्यमस्तृ॑तम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

brāhmaṇād indra rādhasaḥ pibā somam ṛtūm̐r anu | taved dhi sakhyam astṛtam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ब्राह्म॑णात्। इ॒न्द्र॒। राध॑सः। पिब॑। सोम॑म्। ऋ॒तून्। अनु॑। तव॑। इत्। हि। स॒ख्यम्। अस्तृ॑तम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:15» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:28» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

ऋतुओं के साथ वायु क्या-क्या कार्य्य करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जो (इन्द्र) ऐश्वर्य्य वा जीवन का हेतु वायु (ब्राह्मणात्) बड़े का अवयव (राधसः) पृथिवी आदि लोकों के धन से (अनुऋतून्) अपने-अपने प्रभाव से पदार्थों के रस को हरनेवाले वसन्त आदि ऋतुओं के अनुक्रम से (सोमम्) सब पदार्थों के रस को (पिब) ग्रहण करता है, इससे (हि) निश्चय से (तव) उस वायु का पदार्थों के साथ (अस्तृतम्) अविनाशी (सख्यम्) मित्रपन है॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि जगत् के रचनेवाले परमेश्वर ने जो-जो जिस-जिस वायु आदि पदार्थों में नियम स्थापन किये हैं, उन-उनको जान कर कार्य्यों को सिद्ध करना चाहिये, और उन से सिद्ध किये हुए धन से सब ऋतुओं में सब प्राणियों के अनुकूल हित सम्पादन करना चाहिये, तथा युक्ति के साथ सेवन किये हुए पदार्थ मित्र के समान होते और इससे विपरीत शत्रु के समान होते हैं, ऐसा जानना चाहिये॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

ऋतुना सह वायुः किं करोतीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

य इन्द्रो वायुर्ब्राह्मणाद्राधसोऽन्वृतून् सोमं पिब पिबति गृह्णाति हि खलु तस्य वायोरस्तृतं सख्यमस्ति॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ब्राह्मणात्) ब्राह्मणो बृहतोऽवयवात्। अत्र अनुदात्तादेश्च। (अष्टा०४.३.१४०) इत्यवयवार्थेऽञ् प्रत्ययः। (इन्द्र) ऐश्वर्य्यजीवनहेतुत्वाद्वायुः। (राधसः) पृथिव्यादिधनात्। अत्र सर्वधातुभ्योऽसुन् इत्यसुन् प्रत्ययः। (पिब) पिबति गृह्णाति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट्, द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (सोमम्) पदार्थरसम् (ऋतूनू) रसाहरणसाधकान् (अनु) पश्चात् (तव) तस्य प्राणरूपस्य (इत्) एव (हि) खलु (सख्यम्) मित्रस्य भाव इव (अस्तृतम्) हिंसारहितम्॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्जगत्स्रष्ट्रेश्वरेण ये ये यस्य यस्य वाय्वादेः पदार्थस्य मध्ये नियमा स्थापितास्तान् विदित्वा कार्य्याणि साधनीयानि, तत्सिद्ध्या सर्वर्तुषु सर्वप्राण्यनुकूलं हितसम्पादनं कार्य्यम्। युक्त्या सेविता एते मित्रवद्भवन्त्ययुक्त्या च शत्रुवदिति वेद्यम्॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जगाची निर्मिती करणाऱ्या परमेश्वराने जे जे वायू इत्यादी पदार्थांबाबत नियम केलेले आहेत त्यांना जाणून माणसांनी कार्याची सिद्धी करावी व त्यांच्याद्वारे सिद्ध केलेल्या धनाने सर्व ऋतूंत सर्व प्राण्यांच्या अनुकूल असेल असे हित पाहावे व युक्तीने सेवन केलेले पदार्थ मित्राप्रमाणे असतात व या विपरीत शत्रूप्रमाणे असतात, हे जाणले पाहिजे. ॥ ५ ॥