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यो नो॑ अग्ने॒ अर॑रिवाँ अघा॒युर॑राती॒वा म॒र्चय॑ति द्व॒येन॑। मन्त्रो॑ गु॒रुः पुन॑रस्तु॒ सो अ॑स्मा॒ अनु॑ मृक्षीष्ट त॒न्वं॑ दुरु॒क्तैः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo no agne ararivām̐ aghāyur arātīvā marcayati dvayena | mantro guruḥ punar astu so asmā anu mṛkṣīṣṭa tanvaṁ duruktaiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। नः॒। अ॒ग्ने॒। अर॑रिऽवान्। अ॒घ॒ऽयुः। अ॒रा॒ति॒ऽवा। म॒र्चय॑ति। द्व॒येन॑। मन्त्रः॑। गु॒रुः। पुनः॑। अ॒स्तु॒। सः। अ॒स्मै॒। अनु॑। मृ॒क्षी॒ष्ट॒। त॒न्व॑म्। दुः॒ऽउ॒क्तैः ॥ १.१४७.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:147» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वान् ! (यः) जो (अररिवान्) दुःखों को प्राप्त करता हुआ (अघायुः) अपने को अपराध की इच्छा करनेवाला (अरातीवा) न देनेवाला जन के समान आचरण करता (द्वयेन) दो प्रकार के कर्म से वा (दुरुक्तैः) दुष्ट उक्तियों से (नः) हम लोगों को (मर्चयति) कहता है उससे जो हमारे (तन्वम्) शरीर को (अनु, मृक्षीष्ट) पीछे शोधे (सः) वह हमारा और (अस्मै) उक्त व्यवहार के लिये (पुनः) बार-बार (मन्त्रः) विचारशील (गुरुः) उपदेश करनेवाला (अस्तु) होवे ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्यों के बीच दुष्ट शिक्षा देते वा दुष्टों को सिखाते हैं, वे छोड़ने योग्य और जो सत्य शिक्षा देते वा सत्य वर्त्ताव वर्त्तनेवाले को सिखाते वे मानने के योग्य होवें ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अग्ने यो अररिवानघायुररातिवा द्वयेन दुरुक्तैर्नोस्मान्मर्चयति ततो यो नस्तन्वमनुमृक्षीष्ट सोऽस्माकमस्मै पुनर्मन्त्रो गुरुरस्तु ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (नः) अस्मानस्माकं वा (अग्ने) विद्वन् (अररिवान्) प्राप्नुवन् (अघायुः) आत्मनोऽघमिच्छुः (अरातीवा) यो अरातिरिवाचरति (मर्चयति) उच्चरती (द्वयेन) द्विविधेन कर्मणा (मन्त्रः) विचारवान् (गुरुः) उपदेष्टा (पुनः) (अस्तु) भवतु (सः) (अस्मै) (अनु) (मृक्षीष्ट) शोधयतु (तन्वम्) शरीरम् (दुरुक्तैः) दुष्टैरुक्तैः ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याणां मध्ये दुष्टं शिक्षन्ते ते त्याज्याः। ये सत्यं शिक्षन्ते ते माननीयास्सन्तु ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे सत्य वर्तन माणसांना दुष्ट शिक्षण देतात त्यांचा त्याग करावा व जे सत्यशिक्षण देतात ते माननीय ठरतात. ॥ ४ ॥