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स॒मा॒नं व॒त्सम॒भि सं॒चर॑न्ती॒ विष्व॑ग्धे॒नू वि च॑रतः सु॒मेके॑। अ॒न॒प॒वृ॒ज्याँ अध्व॑नो॒ मिमा॑ने॒ विश्वा॒न्केताँ॒ अधि॑ म॒हो दधा॑ने ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samānaṁ vatsam abhi saṁcarantī viṣvag dhenū vi carataḥ sumeke | anapavṛjyām̐ adhvano mimāne viśvān ketām̐ adhi maho dadhāne ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒मा॒नम्। व॒त्सम्। अ॒भि। स॒ञ्चर॑न्ती॒ इति॑ स॒म्ऽचर॑न्ती। विष्व॑क्। धे॒नू इति॑। वि। च॒र॒तः॒। सु॒मेके॑ इति॑ सु॒ऽमेके॑। अ॒न॒प॒ऽवृ॒ज्यान्। अध्व॑नः। मिमा॑ने॒ इति॑। विश्वा॑न्। केता॑न्। अधि॑। म॒हः। दधा॑ने॒ इति॑ ॥ १.१४६.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:146» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:15» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे सूर्यलोक और भूमण्डल दोनों (समानम्) तुल्य (वत्सम्) बछड़े के समान वर्त्तमान दिन-रात्रि को (अभि, सं, चरन्ति) सब ओर से अच्छे प्रकार प्राप्त होते हुए (सुमेके) सुन्दर जिनका त्याग करना (अध्वनः) मार्ग से (अनपवृज्यान्) न दूर करने योग्य पदार्थों को (मिमाने) बनावट (=रचना) करनेवाले (महः) बड़े बड़े (विश्वान्) समग्र (केतान्) बोधों को (अधि, दधाने) अधिकता से धारण करते हुए (धेनू) गौओं के समान (विष्वक्, वि, चरतः) सब ओर से विचर रहे हैं, वैसे इन्हें जान, पक्षपात को छोड़, सब कामों को पूरा करो ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के समान न्याय गुणों के आकर्षण और प्रकाश * करनेवाले, नानाविध मार्गों का निर्माण करते हुए धेनु के समान सबकी पुष्टि करते हुए समग्र विद्याओं को धारण करते हैं, वे दुःखरहित होते हैं ॥ ३ ॥ * गुणों को आकर्षण करनेवालों का प्रकाश- हस्तलेख ॥ सं० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यूयं यथा द्यावापृथिव्यौ समानं वत्समभिसंचरन्ती सुमेकेऽध्वनोऽनपवृज्यान् मिमाने महो विश्वान् केतानधि दधाने धेनूइव विष्वग् विचरतः तथेमे विदित्वा पक्षपातं विहाय सर्वेषां कामान् पूरयत ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (समानम्) तुल्यम् (वत्सम्) वत्सवद्वर्त्तमानोऽहोरात्रः (अभि) अभितः (संचरन्ती) सम्यग् गच्छन्ती (विष्वक्) विषुं व्याप्तिमञ्चति (धेनू) धेनुरिव वर्त्तमाने (वि) (चरतः) (सुमेके) सुष्ठुमेकः प्रक्षेपो ययोस्तौ (अनपवृज्यान्) अपवर्जितुमनर्हान् (अध्वनः) मार्गस्य (मिमाने) निर्माणकर्तृणी (विश्वान्) समग्रान् (केतान्) बोधान् (अधि) (महः) महतः (दधाने) ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सूर्यवत् न्यायगुणाकर्षकप्रकाशका नानाविधमार्गान् निर्मिमाणा धेनुवत् सर्वान्पुष्यन्तः समग्रा विद्या धरन्ति ते दुःखरहिताः स्युः ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्याप्रमाणे न्यायगुण, आकर्षण व प्रकाशयुक्त असतात. नानाविध मार्गाची निर्मिती करीत धेनुप्रमाणे सर्वांची पुष्टी करीत संपूर्ण विद्या धारण करतात ती दुःखरहित होतात. ॥ ३ ॥