वांछित मन्त्र चुनें

तमित्पृ॑च्छन्ति॒ न सि॒मो वि पृ॑च्छति॒ स्वेने॑व॒ धीरो॒ मन॑सा॒ यदग्र॑भीत्। न मृ॑ष्यते प्रथ॒मं नाप॑रं॒ वचो॒ऽस्य क्रत्वा॑ सचते॒ अप्र॑दृपितः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam it pṛcchanti na simo vi pṛcchati sveneva dhīro manasā yad agrabhīt | na mṛṣyate prathamaṁ nāparaṁ vaco sya kratvā sacate apradṛpitaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। इत्। पृ॒च्छ॒न्ति॒। न। सि॒मः। वि। पृ॒च्छ॒ति॒। स्वेन॑ऽव। धीरः॑। मन॑सा। यत्। अग्र॑भीत्। न। मृ॒ष्य॒ते॒। प्र॒थ॒मम्। न। अप॑रम्। वचः॑। अ॒स्य। क्रत्वा॑। स॒च॒ते॒। अप्र॑ऽदृपितः ॥ १.१४५.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:145» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (अप्रदृपितः) जो अतीव मोह को नहीं प्राप्त हुआ वह (धीरः) ध्यानवान् विचारशील विद्वान् (स्वेनेव) अपने समान (मनसा) विज्ञान से (यत्) जिस (वचः) वचन को (अग्रभीत्) ग्रहण करता है वा जो (अस्य) इस शास्त्रज्ञ धर्मात्मा विद्वान् की (क्रत्वा) बुद्धि वा कर्म के साथ (सचते) सम्बन्ध करता है वह (प्रथमम्) प्रथम (न) नहीं (मृष्यते) संशय को प्राप्त होता और वह (अपरम्) पीछे भी (न) नहीं संशय को प्राप्त होता है जिसको (सिमः) सर्व मनुष्यमात्र (न) नहीं (वि, पृच्छति) विशेषता से पूछता है (तमित्) उसीको विद्वान् जन (पृच्छन्ति) पूछते हैं ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। आप्त=साक्षात्कार जिन्होंने धर्मादि पदार्थ किये वे=शास्त्रवेत्ता मोहादि दोषरहित विद्वान् योगाभ्यास से पवित्र किये हुए आत्मा से जिस जिस को सत्य वा असत्य निश्चय करें वह वह अच्छा निश्चय किया हुआ है यह और मनुष्य मानें, जो उनका सङ्ग न करके सत्य-असत्य के निर्णय को जानना चाहते हैं वे कभी सत्य-असत्य का निर्णय नहीं कर सकते, इससे आप्त विद्वानों के उपदेश से सत्य-असत्य का निर्णय करना चाहिये ॥ २ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

अप्रदृपितो धीरः स्वेनेव मनसा यद्वचोऽग्रभीद्यदस्य क्रत्वा सह सचते तत् प्रथमं न मृष्यते तदपरं च न मृष्यते यं सिमो न विपृच्छति तमिदेव विद्वांसः पृच्छन्ति ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) (इत्) एव (पृच्छन्ति) (न) निषेधे (सिमः) सर्वो मनुष्यः (वि) (पृच्छति) (स्वेनेव) (धीरः) ध्यानवान् (मनसा) विज्ञानेन (यत्) (अग्रभीत्) गृह्णाति (न) निषेधे (मृष्यते) संशय्यते (प्रथमम्) आदिमम् (न) (अपरम्) (वचः) वचनम् (अस्य) आप्तस्य विदुषः (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (सचते) समवैति (अप्रदृपितः) न प्रमोहितः ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। आप्ता मोहादिदोषरहिता विद्वांसो योगाभ्यासपवित्रीकृतेनात्मना यद्यत्सत्यमसत्यं वा निश्चिन्वन्ति तत्तत्सुनिश्चितं वर्त्तत इतीतरे मनुष्या मन्यन्ताम्। ये तेषां संगमकृत्वा सत्यासत्यनिर्णयं जिज्ञासन्ते ते कदाचिदपि सत्याऽसत्यनिर्णयं कर्त्तुं न शक्नुवन्ति तस्मादाप्तोपदेशेन सत्याऽसत्यविनिर्णयः कर्त्तव्यः ॥ २ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. मोह इत्यादी दोषांनी रहित आप्त विद्वान योगाभ्यासाने पवित्र झाल्यामुळे जे सत्य-असत्य निर्णय करतात तो निश्चयात्मक निर्णय इतर माणसांनी मानावा. जे त्यांची संगती न करता सत्य असत्याचा निर्णय जाणू इच्छितात ते कधी सत्य असत्याचा निर्णय घेऊ शकत नाहीत. त्यामुळे आप्त विद्वानांच्या उपदेशाने सत्य असत्याचा निर्णय घेतला पाहिजे. ॥ २ ॥